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________________ नैयायिक का अभिप्राय : -: ( ३ ) अतिरिक्त आत्मा की हम सर्वदा बने रहें, किसी प्रकार का दुःख हमे कभी भी स्पर्श न करे, यह मनुष्य की नैसर्गिक इच्छा है, इसके विरुद्ध कोई व्यक्ति कुछ सोचना या करना नहीं चाहता, ऐसी स्थिति में अपने आपको अभावग्रस्त करने का उपदेश मानव हृदय में कथमपि स्थान नहीं पा सकता, इसके नास्तिता, विश्व की क्षणिकता या भूठेपन का प्रमाण और करते, इसलिये मनुष्य को जन्म, जरा आदि के दलदल से के शुभासन पर प्रतिष्ठित करने का सच्चा उपाय श्रवण, मनन और निदिध्यासनसततध्यान से सम्पन्न होने वाला देहादि से भिन्न नित्य आत्मा का प्रबल साक्षात्कार ही है । तर्क समर्थन भी नहीं निकाल कर अपवर्ग तात्पर्य यह है कि आत्मा सर्वथा नित्य और स्वभावतः निर्विकार है, उसमें ज्ञान, सुख आदि विशेष गुणों का उदय शरीर के सम्बन्ध से होता है. और यह सम्बन्ध तभी तक सम्भव है जब तक मनुष्य उसे शरीर आदि से अत्यन्त भिन्न नहीं समझ लेता, अतः मनुष्य को आत्मा और शरीर के पारस्परिक सम्बन्ध को रोकने के लिये आत्मा देहादि से सर्वथा भिन्न है इस प्रकार का निर्मल निश्चय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये, यही उसके उत्कृष्ट कल्याण का एक कात्र मार्ग है । जैन - शासन के प्रवर्तक महावीर स्वामी को बौद्धसम्मत क्षणिकता या नास्तिता अथवा न्यायसम्मत नित्यता से कोई द्वेष नहीं है, विभिन्न दृष्टियों से आत्मा के ये सभ। धर्म सम्भव हैं । विभिन्न विवेचकों द्वारा माने गये आत्मा के विभिन्न रूपों में यद्यपि किसी रूप की एकान्तता जैन - शासन को मान्य नहीं है तथापि एकान्तक्षणिकता का पक्ष न्याय-पक्ष की अपेक्षा मोक्षार्थी के अधिक प्रतिकूल पड़ता है अतः सर्वप्रथम उसका खण्डन यहां प्रस्तुत किया जायगा । आत्मा न सिद्धयति यदि क्षणभङ्गबाधा - न्नैरात्म्यमाश्रयतु तद्भवदुक्तिबाह्यः । व्याप्त्यग्रहात् प्रथमतः क्षणभङ्गभङ्गे शांकं स भूमिपतितोभयपाणिरेतु ॥ ४ ॥ क्षणभङ्ग अर्थात् प्रत्येक भावात्मक वस्तु अपने जन्म के ठीक बाद वाले क्षण में ही नष्ट होती है, इस सिद्धान्त को सिद्ध करने वाले प्रमाण के विरोध से यदि ज्ञान से भिन्न और ज्ञान आदि गुणों का आधार द्रव्य रूप नित्य आत्मा न सिद्ध हो तो बौद्ध का आप के उपदेश की अवहेलना कर अनात्मवाद का आश्रय लेना
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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