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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभव एव जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । मन्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयमेव जीवः कात्य॑तः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । अर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोग एव जीवः कर्मसंयोगात्खटाया इवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । जीवमिच्छंति जीवकर्मोभयं द्वे अपि जीवकर्मणी शिखरिणीवत् खलु स्फुटं जीवमिच्छंति । अवरे संयोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति । अपरे केचन अष्टकाष्ठखटावदष्टकमणां संयोगेणापि जीवमिच्छंति । कस्मात् । अष्टकर्मसंयोगादन्यस्य शुद्धजीवस्यानुपपत्तेः । अथ एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा एवंविधा बहुविधा बहुप्रकारा देहरागादिपरद्रव्यमात्मानं वदंति दुर्मेधसो दुर्बुद्धयः तेण दु परप्पवादी णिच्छयवादीहिं णिअन्य जीव देखनेमें नहीं आया ऐसा मानते हैं । कोई कहते हैं कि तीव्र मंद अनुभवकर भेदरूप हुआ और जिसका अंत दूर है ऐसे रागरूप रसकर भरा जो अध्यवसानका संतान ( परिपाटी ) वही जीव है क्योंकि इससे अन्यकोई जुदा जीव देखने में नहीं आया ऐसा मानते हैं । कोई कहते हैं कि नवीन और पुरानी जो अवस्था इत्यादि भावकर प्रवर्तमान जो नोकर्म वही जीव है क्योंकि इस शरीरसे अन्य जुदा कुछ जीव देखने में नहीं आता ऐसा मानते हैं । ४ । कोई ऐसा कहते हैं कि समस्त लोकको पुण्य पाप रूपकर व्यापता कर्मका विपाक वही जीव है क्योंकि शुभाशुभभावसे अन्य जुदा कोई जीव देखने में नहीं आया ऐसा मानते हैं । ५ ! कोई कहते हैं कि साता असातारूपकर व्याप्त समस्त तीव्रमंदपने गुणकर भेदरूप हुआ जो कर्मका अनुभव वही जीव है क्योंकि सुखदुःखसे अन्य जुदा कुछ जीव देखनेमें नहीं आया। ६ । कोई कहते हैं कि सिखरनिकी तरह दोरूप मिला जो आत्मा और कर्म ये दोनों मिले ही जीव है क्योंकि समस्तपनेकर कर्मसे जुदा कुछ जीव देखनेमें नहीं आया ऐसा मानते हैं। ७ । कोई कहते हैं कि कर्मके संयोगरूप अर्थ क्रियामें समर्थ होता है वही जीव है क्योंकि कर्मके संयोगसे अन्य (जुदा) कुछ जीव देखने में नहीं आया, जैसे आठ काठके टुकड़े मिलकर खाट हुई तव अर्थक्रियामें समर्थ हुई इसीतरह यहांभी जानना ऐसा मानते हैं । । ८ । इसतरह आठ प्रकार तो ये कहे और अन्यभी अनेक प्रकार परको आत्मा कहते हैं वे दुर्बुद्धि हैं उनको परमार्थके जाननेवाले सत्यार्थवादी नहीं कहते ॥ भावार्थजीव अजीव दोनोंही अनादि कालसे एक क्षेत्रावगाह संयोगरूप मिलरहे हैं और अनादिसे ही पुद्गलके संयोगसे जीवकी विकारसहित अनेक अवस्थायें होरहीं हैं। जो परमार्थ दृष्टिकर देखाजाय तब जीव तो अपने चैतन्यपने आदि भावको नहीं. छोड़ता और पुद्गल अपने मूर्तीक जड़पने आदिको नहीं छोड़ता। लेकिन जो परमार्थको नहीं जानते हैं वे संयोगसे हुए भावोंको ही जीव कहते हैं । परमार्थसे जीवका स्वरूप पुद्गलसे भिन्न
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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