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________________ समयसारः । राध्यवसानसंतान एव जीवस्ततोरिक्तस्यान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्त्तमानं नोकमैव जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाक एव जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्रमंदत्वगच्छतीति तीव्रमंदानुभावगस्तं जीवं मन्यते । तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवोत्ति तथैवावरे चार्वाकादयः कर्मनोकर्मरहितपरमात्मभेदविज्ञानशून्याः शरीरादिनोकर्म चापि जीवं मन्यते । अथ-कम्मस्सुदयं जीवं अवरे अपरे कर्मण उदयं जीवमिच्छंति कम्माणुभागमिच्छंति अपरे च कर्मानुभागं लतादार्वस्थिपाषाणरूपं जीवमिच्छंति । कथंभूतः स चानुभागः। तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो तीव्रत्वमंदत्वगुणाभ्यां वर्त्तते यः स जीवो भवतीति । अथ-जीवो कम्म उहयं दोण्णिवि खलु केवि अन्य कोई [अध्यवसानेषु ] अध्यवसानोंमें [तीव्रमंदानुभागगं] तीव्रमंद अनुभागगतको [जीवं मन्यते ] जीव मानते हैं । [ तथा ] और [परे ] अन्य कोई [ नोकर्म अपि च ] नोकर्मको [जीव इति ] जीव मानते हैं [अपरे] अन्य कोई [कर्मण उदयं ] कर्मके उदयको [ जीवं ] जीव मानते हैं, कोई [कमानुभागं ] कर्मके अनुभागको [यः ] जो अनुभाग [तीव्रत्वमंदत्वगुणाभ्यां] तीव्रमंदपनेंरूप गुणोंकर भेदको प्राप्त होता है [सः] वह [ जीवः भवति ] जीव है [ इच्छंति ] ऐसा इष्ट करते हैं [केचित् ] कोई [जीवकर्मोभयं] जीव और कर्म [ हे अपि ] दोनों मिले हुए को [ खलु ] ही [ जीवं इच्छंति ] जीव मानते हैं [ तु] और [ अपरे ] अन्य कोई [ कर्मणां संयोगेन ] कर्मों के संयोगकर ही [ जीवं इच्छंति ] जीव मानते हैं । [ एवंविधा ] इसप्रकार तथा [बहुविधा ] अन्यभी बहुत प्रकार [ दुर्मेधसः] दुर्बुद्धि मिथ्यादृष्टि [परं] परको [आत्मानं ] आत्मा [ वदंति ] कहते हैं [ ते न परमार्थवादिनः ] वे परमार्थ (सत्यार्थ) कहनेवाले नहीं हैं ऐसा [निश्चयवादिभिः] निश्चय (सत्यार्थ) वादियोंने [ निर्दिष्टाः ] कहा है ॥ टीका-इस जगतमें आत्माके असाधारण लक्षण नहीं जाननेसे नपुंसकपनेकर अत्यंत विमूढ हुए अज्ञानीजन परमार्थभूत आत्माको नहीं जाननेवाले बहुत हैं । वे बहुतप्रकार परको ही आत्मा है ऐसा बकते हैं । कोई तो स्वाभाविक स्वयमेव हुआ रागद्वेषकर मैला जो अध्यवसान अर्थात् आशयरूप विभावपरिणाम वही जीव है ऐसा कहते हैं । उसका हेतु कहते हैं कि जैसे अंगारकी कालिमा है वैसे अध्यवसानसे अन्य कोई जीव दीखता नहीं है इस हेतुसे साधते हैं । कोई कहते हैं कि पूर्व पश्चात् अनादिसे लेकर और आगामी अनंतकालतक अवयवरूप एक भ्रमण क्रियारूपकर क्रीडा करता हुआ जो कर्म वही जीव है क्योंकि इस कर्मसे जुदा कुछ ११ समय
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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