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________________ ७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अथ कथमनुभूतेः परभावविवेको भूत इत्याशंक्य भावकभावविवेकप्रकारमाह; णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमिको । तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति ॥ ३६॥ नास्ति मम कोपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाहमेकः । तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायकाः विदंति ॥ ३६॥ इह खलु फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गलद्रव्येणाभिनिवर्त्यमानष्टकोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभावभावस्य परमार्थतः परभावेन भावयितुमशक्यत्वात्कतमोपि न नाम मम मोहोस्ति किंचैतत्स्वयमेव च विश्वप्रकाशचंचुरविकस्वरानवरतप्रतापसंपदा चिच्छक्तिमात्रेण स्वभावभावेन भगवानात्मैवावबुध्यते । यत्किलाहं खल्वेकः ततः समस्तद्रव्याणां पृष्टे सति मोहादिपरित्यागप्रकारमाह;-णत्थि मम कोवि मोहो नास्ति न विद्यते मम शुद्धनिश्चयेन टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावस्य सतो रागादिपरभावेन कर्तृभूतेन भावयितुं रंजयितुमशक्यत्वात्कश्चिद्रव्यभावरूपो मोहः । बुज्झदि उवओग एव अहमिको बुध्यते जानाति । स कः कर्ता । ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणत्वादुपयोग आत्मैव । किं बुध्यते ? यतःकारणादहमेकः ततो मोहं प्रति निर्ममत्वोस्मि निर्मोहो भवामि । अथवा बुध्यते जानाति । किं जानाति । विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोग एवाहमेकः । तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति तं निर्मोहशुद्धात्मभावनास्वरूपं निर्ममत्वं ब्रुवंति वदंति जानंति वा । के ते । समयस्य शुद्धात्मस्वरू आगे इस अनुभूतिसे परभावका भेदज्ञान किसतरह हुआ ऐसी आशंकाकर प्रथम भावक जो मोहकर्मके उदयरूप भाव उनके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं;-[बुध्यते ] जो ऐसा जाने कि [ मोहः मम कोपि नास्ति ] मोह मेरा कोई भी संबंधी नहीं [एकः उपयोग एव अहं ] एक उपयोग है वही मैं हूं [ तं] ऐसे जाननेको [समयस्य ] सिद्धांतके अथवा आपपरस्वरूपके [विज्ञायकाः] जाननेवाले [ मोहनिर्ममत्वं ] मोहसे निर्ममत्वपना [विंदंति ] समझते हैं कहते हैं । टीकानाम यह अव्ययपद सत्यार्थको जनाता है । अब कहते हैं कि मैं सत्यार्थपनेसे ऐसा जानता हूं कि यह मोह है वह मेरा कुछ भी नहीं लगता । कैसा है यह ? इस मेरे अनुभवमें फल देनेकी सामर्थ्यकर प्रगट होके भावकरूप हुआ जो पुद्गलद्रव्य उसकर रचा हुआ है । सो यह मेरा नहीं है क्योंकि मैं तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव हूं, यह जड़ है । सो परमार्थसे परके भावको दूसरेके भावसे चिंतवन नहीं कर सकते । यहां क्या समझना ? कि स्वयमेव सब वस्तुओंके प्रकाश करनेमें चतुर विकाशरूप हुई और जिसमें निरंतर हमेशा प्रतापसंपदा पायी जाती है ऐसी चैतन्यशक्ति उसमात्र स्वभावभावकर भगवान् आत्माको ही समझना जानना कि मैं परमार्थकर एक चित् शक्तिमात्र हूं। सब द्रव्योंके परस्पर साधारण एक क्षेत्रावगाह होनेसे मेरा आत्मा जडके साथ
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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