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________________ समयसारः। परस्परसाधारणावगाहस्य निवारयितुमशक्यत्वान्मजितावस्थायामपि दधिखंडावस्थायामिव परिस्फुटस्वदमानस्वादभेदतया मोहं प्रति निर्ममत्वोस्मि । सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्वैवमेव स्थितत्वात् । इतीत्थं भावकभावविवेको भूतः । “सर्वतः स्वरसनिर्भरभाव चेतये स्वयमहं खमिहैकं । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्धनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥" एवमेव मोहपदपरिवर्त्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घा पस्य विज्ञायकाः पुरुषा इति । किंच विशेषः । यत्पूर्व स्वसंवेदनज्ञानमेव प्रत्याख्यानं व्याख्यातं तस्यैवेदं निर्मोहत्वं विशेषव्याख्यानमिति । एवमेव मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनेन प्रकारे शिखरनिकी तरह एकमेक हो रहा है अर्थात् जैसे दही और शक्कर मिलानेसे शिखरन होती है उसमें दही खांड एकसे मालूम पड़ते हैं तो भी प्रगटरूप खट्टे मीठे स्वादके भेदसे जुदे २ जाने जाते हैं उसी तरह द्रव्योंके लक्षणभेदसे जड़ चेतनका स्वरूप अनुभव करने में जुदा २ प्रगट मालूम हो जाता है कि मोहकर्मके उदयका स्वाद रागादिक हैं वे चैतन्यके निजस्वभावके स्वादसे जुदे ही हैं । इसलिये मोहके प्रति मैं निर्मम ही हूं। क्योंकि यह आत्मा सदा काल ही अपने एकरूपपनेको प्राप्तहुआ अपने स्वभावरूप समय महलमें विराज रहा है। इसतरह भावकभावरूप मोहके उदयसे भेदज्ञान हुआ जानना । भावार्थ-यह मोहकर्म जड़ पुद्गल द्रव्य है इसका उदय कलुष (मलिन ) भावरूप है सो इसका भाव भी पुद्गलका विकार है यही भावकका भाव है । जब यह चैतन्यके उपयोगके अनुभवमें आता है तब उपयोग भी विकारी हुआ रागादिरूप मलिन दीखता है । और जब इसका भेदज्ञान होवे कि चैतन्यकी शक्तिकी व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोग मात्र है तथा यह कलुषता राग द्वेष मोहरूप हैं वह द्रव्य कर्मरूप जड़ पुद्गलद्रव्यकी है। ऐसा भेदज्ञान हो जाय तब भावकभाव जो द्रव्य कर्मरूप मोहके भाव उनसे भेदभाव अवश्य हो सकता है और आत्मा भी अपने चैतन्यके अनुभवरूप ठहरै ही ऐसा जानना ॥ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं । सर्वतः इत्यादि । अर्थमैं इस लोकमें आपहीसे अपने एक आत्मस्वरूपको अनुभवता हूं । जो मेरा स्वरूप सर्वांगकर अपने निजरसरूप चैतन्यके परिणमनकर पूर्ण ( भराहुआ ) भाववाला है। इसीकारण यह मोह मेरा कुछ भी नहीं लगता अर्थात् इसका और मेरा कुछ भी नाता नहीं है । मैं तो शुद्ध चैतन्यका समूहरूप तेजःपुंजका निधि हूं । इसतरह भावकभावका अनुभव करे । इसी प्रकार गाथामें जो मोहपद है उसे पलटकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन ये सोलह जुदे १ असंख्येयेष्वपि प्रदेशेषु स्वरसेन ज्ञानेन निर्भरः संपूर्णो भावः खरूपं यस्य । १० समय
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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