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परिशिष्टम् ]
समयसारः ।
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स्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्वत्रापनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति । स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरादारूढः परभावभावविरहव्या लोकनि+ ष्कंपितः ॥ २५९ ॥ प्रादुर्भावविराममुद्रितवहन् ज्ञानांशनानात्मतानिर्ज्ञानात्क्षणभंगसंगपतितः प्रायः पशुर्नश्यति । स्याद्वादी तु चिदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टंकोत्की+ र्णघनस्वभावमहिमज्ञानं भवन् जीवति ॥ २६० ॥ टंको त्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया वांछत्युच्छलदच्छवित्परिणतेर्भिन्नः पशुः किंचन । ज्ञानं नित्यमनित्यता परि
ज्ञानमात्रभावस्य जीवपदार्थस्य नयविभागेन भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गद्वयरू
विश्रांतः इत्यादि । अर्थ- अज्ञानी एकांतवादी, परभावको ही अपना भाव जानसे बाह्य वस्तुओं में विश्राम करता अपने स्वभावकी महिमामें एकांतकर निश्चेतन हुआ (जड़ हुआ ) आप नाशको प्राप्त होता है । और स्याद्वादी, सभी वस्तुओंमें अपना नियमरूप स्वभावभावके भवनस्वरूप ज्ञानसे जुदा हुआ, सहज स्वभावका प्रत्यक्षः अनुभवरूप किया है प्रतीतिरूप जानपना जिसने ऐसा हुआ नाशको नहीं प्राप्त होता भावार्थ - एकांती तो परभावको निजभाव जान बाह्य वस्तुमें ही विश्राम करता हुआ आत्माका नाश करता है । और स्याद्वादी, अपने ज्ञानभावको ज्ञेयाकार होनेपर भी ज्ञानको ही अपना भाव जानता हुआ अपना नाश नहीं करता । यह अपने भावकी अपेक्षा अस्तित्वका भंग है । पुनः २५९ वां काव्य - अध्यास्य इत्यादि । अज्ञान एकांतवादी, अपने आत्मामें सब ज्ञेय पदार्थोंका होना निश्चयकर शुद्धज्ञानस्वभावसे च्युत हुआ सब पदार्थोंमें स्वेच्छाचारी हुआ क्रीडा करता है अपने भावका लोप करता है । और स्याद्वादी, अपने आपमें ही सर्वथा आरूढ हुआ परभावका अपने भावमें अभाव प्रगट है ऐसा समझ निश्चित हुआ शुद्ध ही शोभायमान है ॥ भावार्थ - एकांती तो पर भावोंको अपना जान अपने शुद्ध स्वभावसे च्युत हुआ सब जगह निःशंक ( स्वेच्छासे ) प्रवर्तता है । और स्याद्वादी परभावों को जानता है तो भी उनसे जुदा अपने आत्माको शुद्धः ज्ञानस्वभाव अनुभवता हुआ शोभता है । यह परभाव अपेक्षा नास्तित्वका भंग है ॥ पुनः २६० वां काव्य — प्रादुर्भाव इत्यादि । अर्थ - अज्ञानी एकांतवादी, उत्पाद व्ययकर प्राप्त हुए ज्ञानके अंशोंकर नाना स्वरूपके निर्णयके ज्ञानसे क्षणभंगके संगमेंपड़ा बहुधा अपना नाश करता है । और स्याद्वादी, चैतन्यस्वरूपकर चैतन्य वस्तुको नित्य उदयरूप अनुभवता टंकोत्कीर्ण घनस्वभाव महिमावाले ज्ञानरूपसे जीता है अपना नाश नहीं करता ॥ भावार्थ - एकांती तो ज्ञेयके आकारक्त् ज्ञानको उपजता विनाश होता देख क्षणभंगकी संगतिवत् अपना नाश करता है और स्याद्वादी, ज्ञेयके साथ ज्ञानके उपने विनाशः होनेपर भी चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभवता हुआ ज्ञानी
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