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________________ ५५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ परिशिष्टम् कालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनः पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्यपि ॥ २५६ ॥ अर्थालंबनकाल एव कलयन् ज्ञानस्य सत्त्वं बहिर्जेयालंबनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति । नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनि खातनित्यसहजज्ञानैकपुंजीभवन् ॥ २५७ ॥ विश्रांतः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकांतनिश्चेतनः । सर्वस्मानियतस्वभावभवनाज्ज्ञानाद्विभक्तोभवन् स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः ॥ २५८ ॥ अध्याधर्माणां न कथंचन । अनेकांतोप्यनेकांत इति जैनमतं ततः ॥ ४ ॥ एवं कथंचिच्छब्देन वाचकस्यानेकांतात्मकवस्तुप्रतिपादकस्य स्याच्छब्दस्यार्थः संक्षेपेण ज्ञातव्यः । तत्रैवमनेकांतव्याख्यानेन ज्ञानमात्रभावो जीवपदार्थः एकानेकात्मको जातः । तस्मिन्नेकानेकात्मके जाते सति अर्थों को छोड़ता है वैसे चैतन्यके आकारों भी छोड़ता है । ऐसा जानता है कि चैतन्यके आकारोंको अपना करूंगा तो अपना क्षेत्र छूट जायगा इसलिये आप चैतन्यके आकार रहित हुआ तुच्छ ( नष्ट ) होता है । और स्याद्वादी ज्ञेयपदार्थोंको छोड़ देता है तौभी अपने चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता, अपने क्षेत्रमें वसता हुआ परक्षेत्रमें अपनी नास्तिताको जानता नष्ट नहीं होता । यह परक्षेत्रकी अपेक्षा नास्तिताका भंग है। पुनः २५६ वां काव्य-पूर्वा इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी एकांतवादी, पूर्वकालमें आलंबे ज्ञेयपदार्थों के नाश होने के समयमें ज्ञानका भी नाश जानता हुआ कुछ भी नहीं जानता तुच्छ हुआ नाशको प्राप्त होता है । और स्याद्वादका जाननेवाला, इस आत्माके अपने कालसे अस्तित्वको जानता हुआ बाह्य वस्तुको वार वार होके नष्ट होजानेपर भी आप पूर्ण ही तिष्ठता है। भावार्थ-पहले जो ज्ञेय जाने थे वे उत्तरकालमें नष्ट होगये, उनको देख एकांती अपने ज्ञानका भी नाश मान अज्ञानी हुआ आत्माका नाश करता है । और स्याद्वादी ज्ञेयपदार्थोंके नष्ट होनेपर भी अपना अस्तित्व अपने कालसे ही मानता नष्ट नहीं होता । यह स्वकाल अपेक्षा अस्तित्वका भंग है ॥ पुनः २५७ वां काव्य-अर्थालंबन इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी एकांतवादी, ज्ञेयपदार्थके आलंबन कालसे ही ज्ञानका अस्तित्व जानता हुआ बाह्यज्ञेयके आलंबनमें चित्तको अनुरागसहित कर बाह्य भ्रमता हुआ नाशको प्राप्त होता है । और स्याद्वादका जाननेवाला, परकालसे अपने आत्माका नास्तित्व जानता हुआ आत्मामें खुदा जो नित्य स्वाभाविक ज्ञान पुंज उस स्वरूप हुआ तिष्ठता है नष्ट नहीं होता ॥ भावार्थ-एकांती तो ज्ञेयके अलंबनके कालमें ही ज्ञानका सत्त्व जानता है इसलिये ज्ञेयके आलंबनमें मन लगाके बाह्य भ्रमता हुआ नष्ट होता है और स्याद्वादी, ज्ञेयके कालसे अपना अस्तित्व नहीं जानता अपने ही कालसे अपना अस्तित्व जानता है इसलिये ज्ञेयसे जुदा ही अपने ज्ञानका पुंज रूप हुआ नष्ट नहीं होता । यह परकाल अपेक्षा नास्तित्वका भंग है ॥ २५८ वां काव्य
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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