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________________ परिशिष्टम् ] समयसारः। ५५१ निषण्णयोध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा सीदत्येव बहिः पतंतमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः । वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनि खातबोध्यनियतव्यापारशक्तिभवन् ॥ २५४॥ स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झना तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान्महार्थैर्वमन् । स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां स्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् ॥ २५५ ॥ पूर्वालंबितयोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन् सीदत्येव न किंचनापि कलयन्नत्यंततुच्छः पशुः । अस्तित्वं निजदृष्टमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्ताबके न्याये नान्येषामात्मविद्विषां ॥२॥ अनेकांतोप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणात्ते तदेकांतोऽर्पितान्नयात् ॥ ३॥ धर्मिणोऽनंतरूपत्वं वां काव्य-सर्वद्रव्य इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी एकांतवादी, आत्माको सब द्रव्यमयी एक कल्पकर कुनयकी वासनासे वासित हुआ प्रगट परद्रव्यमें स्वद्रव्यका भ्रम करके विश्राम करता है । और स्थाद्वादी, समस्त ही वस्तुमें परद्रव्य स्वरूपकर नास्तिताको जानता हुआ जिसके शुद्ध ज्ञानकी महिमा निर्मल है ऐसा हुआ स्वद्रव्यको ही आश्रय करता है । भावार्थ-एकांतबादी तो सब द्रव्यमय एक आत्माको मान परद्रव्य अपेक्षा नास्तिताका लोप करता है । और स्याद्वादी सबमें परद्रव्यकी अपेक्षा नास्तिता मान अपने निजद्रव्यमें रमता है । यह परद्रव्यकी अपेक्षा नास्तिताका भंग है ॥ पुन: २५४ वां काव्य-भिन्न इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी एकांतवादी, भिन्न क्षेत्रमें तिष्ठे शेय पदार्थोंमें ज्ञेयज्ञायक संबंधरूप निश्चित व्यापारमें तिष्ठे पुरुषको समस्त पनेसे बाह्य ज्ञेयोंमें ही पड़ते हुएको देखता कष्टको ही प्राप्त होता है । और स्याद्वादका जाननेवाला अपने क्षेत्रमें अपने अस्तिपनेकर जिसने अपना वेग रोक लिया है ऐसा हुआ अपने क्षेत्रमें ही अस्तित्वरूप ठहरता है ॥ भावार्थ-एकांतवादी तो भिन्न क्षेत्रमें तिष्ठे ज्ञेय पदार्थोंके जाननेके व्यापाररूप हुए पुरुषको बाह्य पड़ता ही मान नष्ट करता है। और स्याद्वादी, अपने क्षेत्रमें ही तिष्ठा पुरुष अन्य क्षेत्रमें तिष्ठे ज्ञेयोंको जानता हुआ अपने क्षेत्रमें ही अस्तित्वको धारता है-ऐसा मानता आत्मामें ही तिष्ठता है । यह स्वक्षेत्रमें अस्तित्वका भंग है । पुनः २५५ वा काव्य-खक्षेत्र इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी एकांतवादी, अपने क्षेत्रमें ठहरनेके लिये जुदे जुरे पर क्षेत्रमें तिष्ठते ज्ञेय पदार्थोके छोड़नेसे तुच्छ होकर अपने चैतन्यके शेयरूप आकारोंको पर ज्ञेय अर्थ के साथ क्मताहुआ जैसे अर्थोंको छोड़ता है वैसे ही चैतन्यके आकारोंको भी छोड़ता है तब आप तुच्छ रहा । ऐसे अपना नाश करता है। और स्वाद्वादी अपने क्षेत्रमें क्सता हुआ परक्षेत्रमें अपनी नास्तिताको जानता पद्यपि पर क्षेत्रके ज्ञेय पदार्थोंको छोड़ता है तो भी अपने चैतन्यके जो ज्ञेयरूप आकार हुए उनको फ्रसे खेंचता हुआ तुच्छताको नहीं अनुभवता, नष्ट नहीं होता ।। भावार्थएकांती तो परक्षेत्रमें तिष्ठते शेयपदार्थों के आकार चैतन्यके आकार हुए उनको जैसे
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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