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________________ ५५० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ परिशिष्टम् प्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वतः क्षालितं पर्यायस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकांतवित् ॥२५१॥ प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्थिरपरद्रव्यास्तितावंचितः स्वद्रव्यानवलोकनेन परितः शून्यः पशुनश्यति । स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सद्यः समुन्मजता स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति ॥ २५२ ॥ सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुष दुर्वासनावासितः स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति । स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्निर्मलशुद्धबोधमहिमा खद्रव्यमेवाश्रयेत् ॥ २५३॥ भिन्नक्षेत्रक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यंति पुष्यंति स्यादितीह ते ॥ १ ॥ सर्वथा नियमत्यागी यदाज्ञानके एक द्रव्यपनेकर ज्ञेयोंके आकार होनेसे हुए सर्वथा भेदके भ्रमको दूर करता निर्बाध अनुभवनस्वरूप ज्ञानको एक देखता है ॥ भावार्थ-ज्ञान है वह ज्ञेयोंके आकार परिणमनेसे अनेक दीखता है उसको सर्वथा एकांतवादी अनेक खंड खंड रूप देखता हुआ ज्ञानमय आत्माका नाश करता है और स्याद्वादी ज्ञानको ज्ञेयाकार होनेपर भी सदा उदयरूप द्रव्यपनेकर एक देखता है । यह एकवरूप भंग है । अब २५१ वां काव्य है-ज्ञेयाकार इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी सर्वथा एकांतवादी, ज्ञेयोंके आकारोंसे कलंकित अनेकाकार रूप मलिन चैतन्यमें एक चैतन्यमात्रके आकार करनेकी इच्छा करनेसे धोवना कल्पता हुआ ज्ञान अनेकाकार प्रगट है तो भी उसको नहीं मानता, एकाकार ही मान ज्ञानका अभाव करता है । और अनेकांतका जाननेवाला, ज्ञेयाकारसे ज्ञानका विचित्रपना होनेपर भी एकपनेको प्राप्त ज्ञान है वह आप स्वयमेव प्रक्षाला हुआ शुद्ध है एकाकार है ऐसे उस ज्ञानकी पर्यायोंकर अनेकताको अनुभवता है ॥ भावार्थ-एकांतवादी तो ज्ञानमें ज्ञेयाकारको मैल समझ एकाकार करनेके लिये ज्ञेयाकारको धोकर ज्ञानका नाश करता है । और अनेकांती ज्ञानको स्वरूपकर अनेकाकारपना मानता है । ऐसा वस्तुका स्वभाव है वह सत्यार्थ है । ऐसा अनेक स्वरूप भंग है ॥ अब २५२ वां काव्य है-प्रत्यक्षा इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी एकांतवादी, प्रत्यक्ष प्रमाणसे चित्रित हुआ दीखता प्रगट स्थूल निश्चल ऐसे परद्रव्यको देख उसके अस्तित्वसे ठगा हुआ अपने निज आत्म द्रव्यके अस्तित्वको नहीं देखनेसे समस्तपने सर्वथा शून्य हुआ आत्माका नाश करता है । और स्याद्वादी, अपने निज द्रव्यके अस्तिपनेकर निपुण रीतिसे निज आत्म द्रव्यका निरूपणकर तत्काल प्रगट हुए विशुद्ध ज्ञान रूप तेजकर पूर्ण हुआ जीता है, नष्ट नहीं होता ॥ भावार्थ-एकांती बाह्य पर द्रव्यको प्रत्यक्ष देख उसीका अस्तित्व मानने लगता है और अपना आत्म द्रव्य इंद्रियप्रत्यक्ष कर दीखा नहीं इसलिये उसको शुन्य मान आत्माका नाश करता है । परंतु स्याद्वादी, ज्ञानरूप तेजकर अपने आत्मद्रव्यके अस्तित्वको अवलोकनकर आप जीता है आत्माका नाश नहीं करता । यहे स्वद्रव्य अपेक्षा अस्तित्वका भंग है । पुनः २५३
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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