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________________ ५५४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ परिशिष्टम् गमेऽप्यासादयत्युज्ज्वलं स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात् ॥ २६१॥ इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसाधयन् । आत्मतत्त्वमनेकांतः स्वयमेवानुभूयते ॥ २६२॥ एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयं । आलंब्य शासनं जैनमनेकांतो व्यवस्थितः ॥ २६३ ॥ नन्वनेकांतमयस्यापि किमर्थमत्रात्मनो ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ? लक्षणप्रसिद्ध्या लक्ष्यप्रसिद्धार्थ । आत्मनो हि ज्ञानं लक्षणं तदसाधारणगुणत्वात्तेन ज्ञानपेणोपायभूतं साधकरूपं घटते । मोक्षरूपेण पुनरुपेयभूतं साध्यरूपं च घटत इति ज्ञातव्यं । होता जीता है अपना नाश नहीं करता । यह नित्यपनेका भंग है ॥ पुनः २६१ वां काव्य-टंकोत्कीर्ण इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी एकांतवादी, टंकोत्कीर्ण निर्मल ज्ञानका फैलावरूप एक आकार जो आत्मतत्त्व उसकी आशाकर अपनेमें उछलती निर्मल चैतन्यकी परिणतिसे जुदा कुछ आत्माको चाहता है सो कुछ है नहीं । और स्याद्वादी, नित्यज्ञानको अनित्यताको प्राप्त होनेपर भी उज्वल दैदीप्यमान चैतन्य वस्तुकी प्रवृत्तिके क्रमसे ज्ञानकी अनित्यताको अनुभवता ज्ञानको अंगीकार करता है ॥ भावार्थएकांती तो ज्ञानको एकाकार नित्य ग्रहणकरनेकी इच्छासे ज्ञानचैतन्यकी परिणति उपजती विनसती है उससे भिन्न कुछ मानता है सो परिणामके सिवाय परिणामी कुछ जुदा तो है नहीं । और स्याद्वादी, यद्यपि ज्ञान नित्य है तो भी चैतन्यकी परिणति क्रमसे उपजती विनसती है उसके क्रमसे ज्ञानकी अनित्यता मानता है वस्तुस्वभाव ऐसा ही है। यह अनित्यपनेका भंग है । अब २६२ वें श्लोकसे कहते हैं कि ऐसा अनेकांत अज्ञानकर मोही जीवोंको आत्मतत्त्वको ज्ञानमात्र साधता हुआ स्वयमेव अनुभवमें आता हैइत्यज्ञान इत्यादि । अर्थ-इस पूर्वोक्त प्रकार अनेकांत, अज्ञानसे मूढ प्राणियोंको समझानेकेलिये आत्मतत्त्वको ज्ञानमात्र साधता हुआ अपने अनुभवगोचर होता है । भावार्थ-अनादिकालसे प्राणी स्वयमेव तथा एकांतवादका उपदेशकर आत्मतत्त्वका ज्ञानके अनुभवसे अनेक प्रकार पक्षपातकर आत्माका नाश करते हैं उनको समझाने के लिये आमाका स्वरूप ज्ञानमात्र ही कहकर उसको अनेकांतस्वरूप प्रकटकर स्याद्वादसे दिखलाया है सो यह असत्कल्पना नहीं है । ज्ञानमात्र वस्तु अनेकधर्मसहित अपने आप अनुभवगोचर प्रत्यक्ष प्रतिभासमें आती है सो हे प्रवीण पुरुषो! तुम अपने आत्माकी तरफ देख अनुभव कर देखो । ज्ञानको तत्स्वरूप अतत् स्वरूप एक स्वरूप अने. कस्वरूप, अपने द्रव्यक्षेत्रकाल भावसे सत्स्वरूप, परके द्रव्य क्षेत्रकाल भावसे असत्स्वरूप नित्यस्वरूप अनित्यस्वरूप इत्यादि प्रत्यक्ष अनुभव गोचरकर अनेकधर्म स्वरूप प्रतीतिमें लाओ । यही सम्यग्ज्ञान है । सर्वथा एकांत माननेसे मिथ्या ज्ञान है ऐसा जानना ॥ अब अनेकांतकी महिमा २६३ वें श्लोकसे करते हैं-अर्थ-इसप्रकार वस्तुके यथार्थ खरूपकी व्यवस्थिति कर अपने स्वरूपको आप ही स्थापन करता हुआ अनेकांत है वह
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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