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________________ ४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । नुभूयमानं लवणं लोकानामबुद्धानां व्यंजनलुब्धानां स्वदते न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यां । अथ च यदेव विशेषाविर्भावनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्याविर्भावेनापि तथा विचित्रज्ञेयाकारकरंवितत्वोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं ज्ञानमबुद्धानां ज्ञेयलुब्धानां स्वदते न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातस पुरुषः पस्सदि पश्यति जानाति । किं तत् । जिणसासणं जिनशासनं अर्थसमयरूपं जिनमतं सव्वं सर्वं द्वादशांगपरिपूर्ण । कथंभूतं । अपदेसमुत्तमज्झं अपदेशसूत्रमध्यं अपदिश्यतेर्थो येन स भवत्यपदेशशब्दो द्रव्यश्रुतमिति यावत् सूत्रपरिच्छित्तिरूपं भावश्रुतं ज्ञानसमय इति तेन शब्दसमयेन वाच्यं ज्ञानसमयेन परिच्छेद्यमपदेशसूत्रमध्यं भण्यते इति । अयमत्र भावः । यथा लवणखिल्य एकरसोपि फलशाकपत्रशाकादिपरद्रव्यसंयोगेन भिन्नभिन्नास्वादः प्रतिभात्यजिनशासनं ] सब जिनशासनको [ पश्यति ] देखता है । वह जिनशासन [अपदेशसांतमध्यं ] बाह्यद्रव्यश्रुत और अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है। टीका-जो अबद्धस्पृष्ट अनन्य नियत अविशेष असंयुक्त-ऐसे पांच भावोंस्वरूप आत्माकी अनुभूति वही निश्चयसे सब जिनशासनकी अनुभूति है । क्योंकि श्रुतज्ञान आप आत्मा ही है इसलिये यह आत्माकी अनुभूति वही ज्ञानकी अनुभूति है । यहांपर यह विशेषता है कि सामान्यज्ञानका तो प्रगटपना और विशेष ज्ञेयाकार ज्ञानका आच्छादन उससे ज्ञानमात्र ही जब अनुभव किया जाय तब ज्ञान प्रगट अनुभवमें आता है तौ भी जो अज्ञानी हैं ज्ञेयों ( पदार्थों )में आसक्त हैं उनको स्वादरूप नहीं होता। यही प्रगट दृष्टांतसे दिखलाते हैं-जैसे अनेकतरहके शाक आदि भोजनोंके संबंधसे उत्पन्न सामान्यलवणका तिरोभाव तथा विशेष लवणका आविर्भाव (प्रगटपना) उससे अनुभवमें आनेवाला जो सामान्यलवणका तिरोभावरूप लोंग तथा लोणका विशेषभावरूप व्यंजनोंका ही स्वाद अज्ञानी ( व्यंजनोंके लोभी) मनुष्योंको आता है। परंतु अन्यके संबंधरहितपनेसे उत्पन्न हुआ जिसमें सामान्यका आविर्भाव तथा विशेषका तिरोभाव ऐसे भावकर एकाकार अभेदरूप लोनका स्वाद नहीं आता । और जब परमार्थसे देखा जाय तब जो विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आया क्षार रसरूप लोन है वही सामान्यके आविर्भावकर अनुभवमें आयाहुआ क्षार रसरूप लोन है ॥ उसीतरह अनेकाकार ज्ञेयोंके आकारोंसे मिश्ररूपपनेसे जिसमें सामान्यका तिरोभाव और विशेषका आविर्भाव ऐसे भावकर अनुभवमें आया जो ज्ञान वह अज्ञानियों ( ज्ञेयोंमें आसक्तों ) को विशेषभावरूप भेदरूप अनेकाकाररूप स्वादमें आता है परंतु अन्यज्ञेयाकारके संयोगकर रहितपनेसे उत्पन्न जिसमें सामान्यका आविर्भाव और विशेषका तिरोभाव ऐसा एकाकार अभेदरूप ज्ञानमात्र अनुभवमें स्वादरूप नहीं आता है । और परमार्थसे विचाराजाय तब जो विशेषके आविर्भावकर
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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