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________________ ४३. समयसारः। सामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यां । अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं ज्ञानं तदेव सामान्याविर्भावेनाप्यलुब्धबुद्धानां यथा सैंधवखिल्योन्यद्रव्यसंयोगाव्यच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोप्येकलवणरसत्वालवणत्वेन स्वदते तथात्मापि परद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोप्येकविज्ञानघनत्वात् ज्ञानत्वेन वदते । ज्ञानिनां । ज्ञानिनां पुनरेकरस एव तथात्माप्यखंडज्ञानस्वभावोऽपि स्पर्शरसगंधशब्दनीलपीतादिवर्णज्ञेयपदार्थविषयभेदेनाज्ञानिनां निर्विकल्पसमाधिभ्रष्टानां खंडखंडज्ञानरूपः प्रतिभाति ज्ञानिनां पुनरखंडकेवलज्ञानस्वरूपमेव इति हेतोरज्ञानरूपे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्व जिनशासनं ज्ञातं भवतीति मत्वा समस्तमिथ्यात्वरागादिपरिहारेण तत्रैव शुद्धात्मनि भावना कर्त्तव्येति । किं च मिथ्यात्वशब्देन दर्शनमोहो रागादिशब्देन चारित्रमोह इति सर्वत्र ज्ञातव्यं । अथ तृतीयगाथायां सम्यग्ज्ञानादिकं सर्वशुद्धात्मभावनामध्ये लभ्यत इति निरूपयति । ज्ञान अनुभवमें आता है वही सामान्यके आविर्भावकर ज्ञानियोंके ( जो ज्ञेयमें आसक्त नहीं हैं उनके ) अनुभवमें आता है। जैसे लोनकी डली ( कंकडी) अन्यद्रव्यके संयोगके अभावकर केवल (एक लोनमात्र) अनुभव किये जानेपर एक लोन रस क्षारपनेकर स्वादमें आता है उसी तरह आत्मा भी पर द्रव्यके संयोगसे जुदे केवल एक भावकर अनुभव करनेपर सब तरफसे एक विज्ञानघन स्वभावसे ज्ञानपनेकर स्वादमें आता है ।। भावार्थ-यहां आत्माकी अनुभूति ही ज्ञानकी अनुभूति कही गई है अज्ञानीजन इंद्रियज्ञानके विषयोंमें ही लुब्ध हो रहे हैं सो उनसे अनेकाकार हुए ज्ञानको ही ज्ञेयमात्र आस्वादते हैं परंतु ज्ञेयोंसे भिन्न ज्ञानमात्रका आस्वाद नहीं लेते। और जो ज्ञानी हैं ज्ञेयोंमें आसक्त नहीं हैं वे एकाकार ज्ञेयोंसे जुदा ज्ञानका ही आस्वाद लेते हैं। जैसे व्यंजनों ( भोजनों )से जुदी लोनकी डलीका क्षारमात्र स्वाद आवे उस तरह आस्वाद लेते हैं। क्योंकि ज्ञान है वही आत्मा है और आत्मा है वही ज्ञान है । इसतरह गुणीगुणकी अभेद दृष्टिमें आया जो सब परद्रव्योंसे जुदा अपने पर्यायोंमें एकरूप निश्चल अपने गुणोंमें एकरूप, परनिमित्तसे उत्पन्नहुए भावोंसे भिन्न अपने स्वरूपका अनुभवन है वही ज्ञानका अनुभव है। यही अनुभव भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभव है । शुद्धनयसे इसमें कुछ भेद नहीं है ॥ अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं "अखंडितं” इत्यादि । अर्थ-आचार्य कहते हैं कि वह उत्कृष्ट तेज प्रकाशरूप हमें होवे जो सदाकाल चैतन्यके परिणमनकर भराहुआ है । जैसे लोनकी डली एक क्षाररसकी लीलाको आलंबन करती है उसीतरह एक ज्ञानरसस्वरूपको आलंबन करता है । वह तेज अखंडित है जिसमें ज्ञेयोंके आकार खंडित नहीं होते. अनाकुल है जिसमें कर्मके निमित्तसे हुए रागादिकोंसे उत्पन्न आकुलता नहीं है, अविनाशीपनेसे अंतरंग तो चैतन्यभावकर दैदीप्यमान अनुभवमें आता है
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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