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________________ ३६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यः पश्यति आत्मानं अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतं । अविशेषमसंयुक्तं तं शुद्धनयं विजानीहि ॥ १४ ॥ या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनयः सात्वनुभूतिरात्मैवेत्यात्मकै एव प्रद्योतते । कथं यथोदितस्यात्मनोनुभूतिरिति चेद्वद्धस्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात्तथाहि —— यथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां सलिलस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांततः सलिलास्पृश्यं बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । तथात्मनोनादिबद्धस्पृष्टत्व पर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृपर्यंतं जीवाधिकारः कथ्यते । तथाहि - सहजानंदैकस्वभावशुद्धात्मभावना मुख्यतया जो परसदि अप्पाणमित्यादि सूत्रपाठक्रमेण प्रथमस्थले गाथात्रयं । तदनंतरं दृष्टांतदाष्टतद्वारेण भेदाभेदरत्नत्रयभावना मुख्यतया दंसणणाणचरित्ताणि इत्यादि द्वितीयस्थले गाथात्रयं । ततः परं जीवस्याप्रतिबुद्धत्वकथनेन प्रथमगाथा, बंधमोक्षयोग्य परिणामकथनेन द्वितीया, जीवो निश्वयेन रागादिपरिणामाणामेव कर्त्तेति तृतीया, चेत्येवं कम्मे णोकम्मा हि य इत्यादि तृतीयस्थले परस्परसंबंधनिरपेक्षस्वतंत्र गाथात्रयं । तदनंतर मिंधनाग्निदृष्टांतेनाप्रतिबुद्धलक्षणकथनार्थं कहते हैं; - [ यः ] जो नय [ आत्मानं ] आत्माको [ अबद्धस्पष्टं ] बंधरहित परके स्पर्शरहित [ अनन्यं ] अन्यपनेरहित [नियतं] चलाचलतारहित [ अविशेषं] विशेषरहित [ असंयुक्तं ] अन्यके संयोगरहित - ऐसे पांच भावरूप [ पश्यति ] अवलोकन करता (देखता ) है [ तं ] उसे हे शिष्य तू [ शुद्धनयं ] शुद्धtय [विजानीहि ] जान । टीका- जो निश्चयसे अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष, असंयुक्त - ऐसा आत्माका अनुभव करना वही शुद्धनय है । यह अनुभूति निश्चयसे आत्मा ही है । ऐसा आत्मा ही एक प्रकाशमान है । भावार्थचाहें शुद्धनय कहो या आत्माकी अनुभूति कहो या आत्मा कहो एक ही अभिप्राय है जुदा नहीं है । यहां शिष्य पूछता है कि जैसा कहा वैसे आत्मा की अनुभूति इन पांच भावों में कैसी है ? उसका समाधान । जो बद्धस्पृष्टत्व आदि पांच भाव हैं उनमें अभूतार्थपना है— असत्यार्थपना है इसलिये शुद्धनय ही आत्माकी अनुभूति है । यही वात दृष्टांत प्रगट करते हैं । जैसे कमलिनीका पत्र जलमें डूबा हुआ है उसका जलके स्पर्शनेरूप अवस्थाकर अनुभव किये जानेपर जलका स्पर्शनपना भूतार्थ हैसत्यार्थ है तौ भी एक अपेक्षा वास्तवमें जलके स्पर्शन योग्य नहीं ऐसा कमलिनीका पत्र स्वभावको लेकर अनुभव किया जानेपर जलका स्पर्शनपना अभूतार्थ है-असत्यार्थ है । उसी तरह आत्मा के अनादि पुद्गलकर्मसे बद्धस्पर्शपनेकी अवस्थाकर अनुभव किये जानेपर बद्धस्पृष्टपना भूतार्थ है - सत्यार्थ है । वास्तव में पुद्गल के स्पर्शने योग्य नहीं ऐसे आत्मस्वभावको लेकर अनुभव किये जानेपर बद्धस्पृष्टपना असत्यार्थ है ||
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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