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________________ समयसारः । तायां भूतार्थं । अथ च निर्विलक्षणस्खलक्षणैकजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थ अथैवममीषु प्रमाणनयनिक्षेपेषु भूतार्थत्वेनैको जीव एव प्रद्योतते । ___ "उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विमो याति निक्षेपचक्रं । किमपरमभिदध्मो धाग्नि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥९॥" "आत्मखभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यंतविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति ॥ १०॥" ॥ १३॥ जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥ १४॥ किंच,ये च प्रमाणनयनिक्षेपाः परमादितत्त्वविचारकाले सहकारिकारणभूतास्तेपि सविकल्पावस्थायामेव भूतार्थाः । परमसमाधिकाले पुनरभूतार्थास्तेषु मध्ये भूतार्थेन शुद्धजीव एक एव प्रतीयत ॥१३॥ इति नवपदार्थाधिकारगाथा गता । ततो नवाधिकारेषु मध्ये प्रथमतस्तावदष्टाविंशतिगाथाक्या कहा ? उसका उत्तर कहते हैं । तुमारे मतमें सर्वथा अद्वैत मानते हैं, यदि सर्वथा माना जाय तो बाह्यवस्तुका अभाव ही होजाय सो ऐसा अभाव प्रत्यक्ष विरुद्ध है । हमारे मतमें नयविवक्षा है वह बाह्यवस्तुका लोप नहीं करती । शुद्ध अनुभवसे विकल्प मिट जाता है तब आत्मा परमानंदको प्राप्त होजाता है इसलिये अनुभव करानेको ऐसा कहा गया है। यदि बाह्यवस्तुका लोप किया जावे तो आत्माका भी लोप होजाय तब शून्यवादका प्रसंग आसकता है । इसलिये तुमारे कहनेसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं होसकती और वस्तुस्वरूपकी यथार्थ श्रद्धाके विना जो शुद्ध अनुभव भी किया जाय वह भी मिथ्यारूप है । ऐसा होनेसे शून्यका प्रसंग आता है तब आकाशके फूलके समान अनुभव होजायगा ॥ आगे जो शुद्धनयका उदय होता है उसकी सूचनाका श्लोक कहते हैं । “आत्मस्वभावं" इत्यादि । अर्थ-शुद्धनय आत्माके स्वभावको प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है। कैसा प्रगट करता है ? परद्रव्य, परद्रव्यके भाव तथा परद्रव्यके निमित्तसे हुए अपने विभाव इस तरहके परभावोंसे जुदा प्रगट करता है। फिर समस्तपनेसे पूर्ण सब लोकालोकके जाननेवाले स्वभावको प्रगट करता है, क्योंकि ज्ञानमें भेद कर्मसंयोगसे है शुद्धनयमें कर्म गौण हैं । तथा आदि अंतकर रहित (कुछ आदि लेकर किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ और न कभी किसीसे नाश है) ऐसे पारिणामिकभावको प्रगट करता है। एक सब भेदभावोंसे (द्वैतभाबोंसे )रहित एकाकार तथा जिसमें समस्त संकल्पविकल्पके समूह विलय (नाश) होगये हैं ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है । द्रव्यकर्म भाव कर्म नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्योंमें अपनी कल्पना करना उसे संकल्प कहते हैं और ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें भेद मालूम होना उसे विकल्प कहते हैं ॥ १३॥ इसतरहकी शुद्धनयको गाथासूत्रसे
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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