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________________ समयसारः । ३७ ष्टत्वं भूतार्थमप्येकांततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । यथा च मृत्तिकायाः कस्ककरीरकर्करीकपालादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतो - प्यस्खलंतमेकं मृत्तिकास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं तथात्मनो नारकादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोप्यस्खलंतमेकमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । तथा च वारिधेर्वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यअहमेदमित्यादि चतुर्थस्थले सूत्रत्रयं । अतः परं शुद्धात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुभूतिलक्षणाभेदरत्नत्रयभावनाविषये योऽसावप्रतिबुद्धस्तत्प्रतिबोधनार्थं अण्णाणमोहिदमदी इत्यादि पंचमस्थले सूत्रत्रयं । अथ निश्चयरत्नत्रयलक्षणशुद्धात्मतत्त्वमजानन् देह एवात्मेति योऽसौ पूर्वपक्षं करोति तस्य स्वरूपकथनार्थं जदि जीवो इत्यादि पूर्वपक्षरूपेण गाथैका । तदनंतरं व्यवहारेण देहस्तवनं निश्चयेन शुद्धात्मस्तवनमिति नयद्वयविभागप्रतिपादन मुख्यत्वेन ववहारेण और जैसे मृत्तिका (मट्टी) के बनेहुए ढकना कपालआदि पर्यायभेदोंकर अनुभव करनेसे अन्यपना सत्यार्थ है तौ भी सब पर्यायोंके भेदरूप नहीं होते हुए एक मट्टी के स्वभावको अनुभवन करनेसे पर्यायभेद अभूतार्थ हैं — असत्यार्थ हैं । उसी तरह आत्माको नारकआदि पर्यायभेदोंकर अनुभवन करनेसे पर्यायोंका अन्यपना सत्यार्थ है तौ भी सब पर्यायभेदोंमें अचल एक चैतन्याकार आत्मस्वभावको लेके अनुभव करनेसे अन्यपना अभूतार्थ है असत्यार्थ है । जैसे समुद्रको वृद्धिहानिअवस्थाकर अनुभव करनेसे अनियतपना ( अनिश्चितपना ) भूतार्थ है तौ भी नित्य ठहरे हुए समुद्र स्वभावको अनुभवन करने से अनियतपना अभूतार्थ है असत्यार्थ है । उसी तरह आत्माका वृद्धिहानिपर्यायभेदोंकर अनुभव करनेसे अनियतपना भूतार्थ है सत्यार्थ है तो भी नित्य ठहरे हुए निश्चल आत्माके स्वभावका अनुभव करनेसे अनियतपना अभूतार्थ है असत्यार्थ है | जैसे सुवर्णका चीकना भारी पीला आदि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करने पर विशेषपना सत्यार्थ है तौ भी जिसमें सब विशेष विलय होगये हैं ऐसे सुवर्णस्वभावको लेके अनुभव करनेसे विशेषपना अभूतार्थ है असत्यार्थ है । उसी तरह आत्माका ज्ञान दर्शन आदि गुणरूपभेदोंसे अनुभव करनेपर विशेषपना भूतार्थ हैसत्यार्थ है तो भी जिसमें सब विशेष विलय होगये हैं ऐसे चैतन्यमात्र आत्मस्वभाबको लेकर अनुभव करनेसे विशेषपना अभूतार्थ है असत्यार्थ है | जैसे अग्निके निमितसे उत्पन्न उष्णपने से मिलेहुए जलका तप्तपनेरूप अवस्थाकर अनुभव करनेसे जलमें उष्णपनारूप संयुक्तपना भूतार्थ है - सत्यार्थ है तौ भी वास्तव में शीतलस्वभावको लेकर जलका अनुभव करनेसे उष्णसंयोग अभूतार्थ है असत्यार्थ है । उसी तरह कर्मनिमित्तवाली मोहसंयुक्तपनेरूप अवस्थाकर आत्माका अनुभव करनेसे संयुक्तपना भूतार्थ है सत्यार्थ है तो भी वास्तव में आत्मबोधका बीजरूप स्वभाव ऐसे चैतन्यभावको लेकर
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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