________________
समयसारः।
अधिकारः ८]
४०९ चलचैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ॥ १९१ ॥ "बंधच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतन्नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकांतशुद्धं । एकाकारस्वरसभरतोऽत्यंतगंभीरधीरं पूर्णज्ञानज्वलितमचले स्वस्य लीने महिम्नि ॥ १९२ ॥" ३०६ ॥ ३०७ ॥ इति मोक्षो निष्क्रांतः। इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ मोक्ष
प्ररूपकः अष्टमोऽकः ॥८॥
धिमिथ्यात्वविषयकषायपरिणतिरूपमप्रतिक्रमणं तन्नरकादिदुःखकारणमेव । एवं प्रतिक्रमणाद्यष्टविकल्परूपशुभोपयोगो यद्यपि सविकल्पावस्थायाममृतकुंभो भवति तथापि सुखदुःखादिसमतालक्षणपरमोपेक्षारूपसंयमापेक्षया विषकुंभ एवेति व्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथाष्टकं गतं ॥ ३०६ ॥ ३०७ ॥ तत्रैवं सति श्रृंगाररहितपात्रवद्रागादिरहितशांतरसपरिणतशुद्धात्मरूपेण मोक्षो निष्क्रांतः । इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां समयसारव्याख्यायां शुद्धात्मानुभूतिलक्षणायां तात्पर्यवृत्तौ द्वाविंशतिगाथाभिश्चतुर्भिरंतराधिकारैर्नवमो
मोक्षाधिकारः समाप्तः ॥ ८ ॥
हुआ अपनी स्वाभाविक अवस्थारूप अत्यंत शुद्ध समस्त ज्ञेयाकारको गौणकर अपना ( ज्ञानका ) प्रकाश "जिसकी थाह नहीं व जिसमें आकुलता नहीं' ऐसा प्रगट दैदीप्यमान होकर अपनी महिमामें लीन हुआ है ॥ ३०६।३०७ ॥ __ इसप्रकार रंगभूमिमें मोक्षतत्त्वका स्वांग आया था । सो जब ज्ञान प्रगट हुआ तब मोक्षका स्वांग निकल गया ॥ यहांतक ३०७ गाथा और १९२ कलशकाव्य हुए ॥ सवैया-ज्यों नर कोय पयौँ दृढबंधन बंधस्वरूप लखै दुखकारी,
चिंतकरै निति कैम कटे यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी । छेदनकू गहि आयुध धाय चलाय निशंक करै दुय धारी,
यों बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी ॥१॥ इसप्रकार श्री पं० जयचंद्र विरचित समयसारग्रंथकी आत्मख्याति नामा टीका की भाषावचनिकामें आठवां मोक्ष नामा अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ८॥
५२ समय.