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________________ ४०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाथाम् । [ मोक्षलसतां प्रमादो यतः । अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाचिरात् ॥ १९० ॥ त्यक्त्वा शुद्धविधायि तकिल परद्रव्यं समग्रं स्वयं स्खे द्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः । बंधध्वंसमुपेत्यनित्यमुदितखज्योतिरच्छो तिक्रमणशब्दवाच्यं ज्ञानिजनस्य मोक्षकारणं भवति । व्यवहारप्रतिक्रमणं तु यदि शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा तस्यैव निश्चयप्रतिक्रमणस्य साधकभावेन विषयकषायवंचनार्थं करोति तदपि परंपरया मोक्षकारणं भवति, अन्यथा स्वर्गादिसुखनिमित्तपुण्यकारणमेव । यत्पुनरज्ञानिजनसंबं नहीं जानना, तीसरी भूमिका शुद्ध आत्मामयी जानना ॥ आगे इसी अर्थको दृढ करते हुए १९० वां काव्य कहते हैं-प्रमाद इत्यादि । अर्थ-जिसकारण कषायके भारके भारीपनेसे आलसपना है उसे प्रमाद कहते हैं । ऐसे प्रमादकर युक्त आलसभाव है वह शुद्धभाव कैसे हो सकता है ? इसलिये आत्मीकरसकर भरे स्वभाव में निश्चय हुआ मुनि परम शुद्धताको प्राप्त होता है और शीघ्र-थोडे समयमें ही कर्मबंधसे छूट जाता है । भावार्थ-प्रमाद तो कषायके गौरवसे होता है इसलिये प्रमादीके शुद्धभाव नहीं होते। जो मुनि उद्यमकर स्वभावमें प्रवर्तता है वह शुद्ध होकर मोक्षको प्राप्त होता है । अब मुक्त होनेके अनुक्रमके अर्थरूप १९१ वां काव्य कहते हैं और मोक्षका अधिकार पूर्ण करते हैं-त्यक्त्वा इत्यादि। अर्थ-जो पुरुष निश्चयकर अशुद्धताके करनेवाले सब परद्रव्यको छोड आप अपने निजद्रव्यमें लीन होता है वह पुरुष नियमसे सब अपराधोंसे रहित हुआ बंधके नाशको प्राप्त होनेसे नित्य उदयरूप हुआ अपने स्वरूपके प्रकाशरूप ज्योतिकर निर्मल उछलता जो चैतन्यरूप अमृतका प्रवाह उसकर जिसकी महिमा पूर्ण है ऐसा शुद्धहुआ कर्मोंसे छूटता है । भावार्थ-पहले समस्त परद्रव्य का त्यागकर अपने आत्मस्वरूप ( निजद्रव्य ) में लीन होता है वह सब रागादिक अपराधोंसे रहितहोके आगामी बंधका नाश करता है और नित्य उदयरूप केवलज्ञानको पाके शुद्धहोकर सब कर्मोंका नाशकर मोक्षको पाता है । यही मोक्ष होनेका क्रम है । इसतरह मोक्षका अधिकार पूर्ण हुआ, उसके अंत मंगलरूपज्ञानकी महिमाका कलशरूप १९२ वां काव्य कहते हैं—बंध इत्यादि । अर्थ-यह ज्ञान पूर्ण हुआ दैदीप्यमान प्रगट होता हुआ। क्या करता प्रगट हुआ ? कर्मके बंधके छेदनेसे अविनाशी अतुल जो मोक्ष उसको प्राप्त हुआ। जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी जिसकी स्वाभाविक अवस्था प्रफुल्लित हुई है। उसके कर्मका मैल न रहनेसे अत्यंत शुद्ध प्रगट हुआ है, और एक अपने ज्ञानमात्र आकारके निजरसके भारसे अत्यंत गंभीर व धीर है, जिसकी थाह नहीं और जिसमें कुछ आकुलता नहीं । प्रगट होके क्या किया ? किसीप्रकार नहीं चले ऐसी अचल अपनी महिमामें लीन हुआ ॥ भावार्थ-यह ज्ञान प्रगट हुआ सो कर्मका नाशकर मोक्षरूप
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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