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________________ अधिकारः ८ ] समयसारः । णमतिदुष्करं किमपि करिष्यति । वक्ष्यते चात्रैव - कम्मं जं पुम्वकयं सुहासुहमणयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तए अप्पयं तु जो सो पडिकम्मणं ॥ इत्यादि । अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां । प्रलीनं चापलमुन्मीलितमालंबनं । आत्मन्येवालानितं चितमासंपूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः ॥ १८८ ॥ यत्र प्रतिक्रमणमेव विषप्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः ॥ १८९ ॥ प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कषायभर गौरवाद - जनाश्रितमप्रतिक्रमणं सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगापेक्षया यद्यप्यप्रतिक्रमणं भण्यते तथापि वी - तरागचारित्रापेक्षया तदेव निश्चयप्रतिक्रमणं । कस्मात् ? इति चेत्, समस्त शुभाशुभास्रवदोषनिराकरणरूपत्वादिति । ततः स्थितं तदेव निश्चयप्रतिक्रमणं । व्यवहारप्रतिक्रमणापेक्षया, अप्र ४०७ इत्यादि । अर्थ - इस कथनसे सुखकर बैठेहुए प्रमादी जीवोंको तो ताडना की है और जो निश्चयनयका आश्रय ले प्रमादी हो प्रवर्ते उनको ताड़कर उद्यममें लगाया है चपलपनका नाश किया है, जो स्वच्छंद वर्तते हैं उनका स्वच्छंदपना मेंटा है आलंबनको दूर किया है । जो व्यवहारकी पक्षकर परद्रव्यका तथा द्रव्यप्रतिक्रमणादिका आलंबन ले संतुष्ट होते हैं उनका आलंबन छुडाया है । चित्तको आत्मामें ही थांभा है व्यवहार के आलंबनसे अनेक प्रवृत्तियों में चित्त भ्रमता था सो शुद्ध आत्मामें ही लगाया है। जहांतक संपूर्णविज्ञानघन आत्माकी प्राप्ति न हो वहांतक चैतन्यमात्र आत्मामें चित्त लगा रहे इसतरह थांभा ( स्थिर किया ) है ऐसा जानना || अब कहते हैं कि यहां निश्चयनयकर प्रतिक्रमणादिकको तो विषकुंभ कहा और अप्रतिक्रमणादिकको अमृतकुंभ कहा, इस कहने को कोई उलटा समझकर प्रतिक्रमणादिको छोड प्रमादी होवे उसे समझानेको १८९ वां कलशरूप काव्य कहते हैं— यत्र इत्यादि । अर्थ- हे भाई जहां प्रतिक्रमणको ही विष कहा है वहां अप्रतिक्रमण कैसे अमृत हो सकता है ? इसलिये यह लोक नीचे नीचे पड़ता हुआ प्रमादरूप क्यों होता है ? निष्प्रमादी हुआ ऊंचा ऊंचा क्यों नहीं चढता ? ॥ भावार्थ – आचार्य कहते हैं कि अज्ञानावस्थामें जो अप्रतिक्रमणादिकथा उसकी तो कथा ही क्या ? यहां तो निश्चयनयको प्रधानकर द्रव्यप्रतिक्रमणादिक शुभ प्रवृत्तिरूप थे उनकी पक्ष छुडानेको उन्हें तो विषकुंभ कहा है, क्योंकि ये कर्मबंधके ही कारण हैं । और अप्रतिक्रमण प्रतिक्रमणसे रहित तीसरी भूमि जो शुद्ध आत्मस्वरूप है वह प्रतिक्रमणादिसे रहित है इसलिये वहांके अप्रतिक्रमणादि अमृतकुंभ कहेगये हैं उस भूमिमें चढानेको उपदेश किया है । सो प्रतिक्रमणादिकको विषकुंभ कहेगये सुनकर जो प्रमादी होता है उसको कहते हैं कि यह जन नीचा नीचा क्यों पड़ता है तीसरी भूमि में ऊंचा ऊंचा क्यों नहीं चढता है ? जहां प्रतिक्रमणको विषकुंभ कहा है वहां तो उसका निषेधरूप अप्रतिक्रमण ही अमृतकुंभ होगा । सो यह अतिक्रमणादिक अज्ञानीके होनेवाला 1
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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