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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ मोक्षसमग्रा अपि ॥ १८५ ॥ “परद्रव्यग्रहं कुर्वन् वध्यते वापराधवान् । बध्येतानपराधेन स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः ॥ १८६” ॥ ३०० ॥ थेयाई अवराहे कुव्वदि जो सो उ संकिदो भमई। मा वज्झेज्जं केणवि चोरोत्ति जणम्मि वियरंतो ॥ ३०१ ॥ जो ण कुणइ अवराहे सो णिस्संको दु जणवए भमदि । णवि तस्स वज्झिदुंजे चिंता उप्पजदि कयाइ॥ ३०२॥ भेदज्ञानेनेति । एवं विशेषभेदभावनाव्याख्यानमुख्यत्वेन तृतीयस्थले सूत्रपंचकं गतं ॥ ३०॥ अथ मिथ्यात्वरागादिपरभावस्वीकारेण बध्यते वीतरागपरमचैतन्यलक्षणस्वस्थभावस्वीकारेण मुच्यते जीव इति प्रकाशयति; तेयादी अवराहे कुव्वदि सो ससंकिदो होदि यः स्तेयपरदाराद्यपराधान् करोति स पुरुषः सशंकितो भवति । केन रूपेण ? मा बज्झेहं केणवि चोरोत्ति जणमि विवरंतो जने विचरन् माहं वध्ये केनापि तलवरादिना । किं कृत्वा ? चौर इति मत्त्वा । इत्यन्वयदृष्टांतगाथा गता । जो ण कुणदि अवराहे सो णिस्संको दु जणवदे भमदि यः स्तेयपरदाराद्यपराधं न करोति स निश्शंको जनपदे लोके भ्रमति । णवि तस्स वज्झिदं जे चिंता उप्पजदि कयावि तस्य चिंता नोपद्यते कदाचिदपि जे अहो यस्मात्कारणात् वा निरपराधः, केन रूपेण चिंता नोत्पद्यते? नाहं परद्रव्य हैं ॥ इसका भावार्थ सुगम है ॥ आगे कहते हैं कि परद्रव्यको जो ग्रहण करता है वह अपराधवाला है बंधमें पडता है और जो निजद्रव्यमें संतुष्ट है वह निरपराधी है नहीं बंधता ऐसी सूचनिकाका अगले कथनका १८६ वा श्लोक कहते हैं-परद्रव्य इत्यादि । अर्थ-जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह तो अपराधवान् है वही बंधमें पडता है और जो अपने द्रव्यमें ही संतुष्ट है परद्रव्यको नहीं ग्रहण करता वह यतीश्वर अपराधरहित है वह नहीं बंधता ॥ ३००॥ - आगे इस कथनको दृष्टांतपूर्वक गाथामें कहते हैं;-[यः] जो पुरुष [स्तेयादीन अपराधान् ] चोरीआदि अपराधोंको [करोति ] करता है [ स तु] वह [शंकितो भ्रमति] ऐसी शंकासहित हुआ भ्रमता है कि [ जने विचरन् ] लोकमें विचरता हुआ मैं [चोर इति ] चोर ऐसा मालूम होनेपर [ केनापि मा बध्ये] किसीसे पकड़ा (बांधा ) न जाऊं। [यः] जो [अपराधान् ] कोई भी अपराध [ न करोति ] नहीं करता [ स तु] वह पुरुष [ जनपदे] देशमें [निःशंकः भ्रमति ] निशंक भ्रमता है [ तस्य ] उसको [ यत् बटुं चिंता ] बंधनेकी चिंता [कदाचित् अपि] कभी भी [न उत्पद्यते ] नहीं उपजती ( होती) [एवं
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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