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________________ अधिकारः ८ ] समयसारः । को नाम भद् बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान् । ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धं ॥ ३०० ॥ ३९९ यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात् स खल्वेकं चिन्मात्रं भावमात्मीयं जानाति शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति । एवं जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोर्निश्चयेन स्वस्वामिसंबंधस्यासंभवात् । अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः शेषाः सर्वे एव भावाः प्रहातव्या इति सिद्धांतः । “सिद्धांतोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहं । एते ये तु समुल्लसंति विविधा भावा पृथग्लक्षणास्तेहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं ब्रूयाद्बुधो ज्ञानी विवेकी नाम स्फुटमहो वा न कोऽपि । किं ब्रूयात् । मज्झमिणंतिय वयणं ममेति वचनं किं कृत्वा ? पूर्वं णादुं निर्मलात्मानुभूतिलक्षणभेदज्ञानेन ज्ञात्वा । कान् ? सव्वे परोदये भावे सर्वान् मिथ्यात्वरागादिभावान् विभावपरिणामान् । कथंभूतान् ? परोदयान् शुद्धात्मनः सकाशात् परेण कर्मोदयेन जनितान् । किं कुर्वन् सन्? जाणंतो अप्पयं सुद्धं जानन् परमसमरसीमावेनानुभवन्, कं? आत्मानं । कथंभूतं शुद्धं, भावकर्मद्रव्यकर्मनो कर्मरहितं । केन कृत्वा जानन् ? शुद्धात्मभावनापरिणता भेदरत्नत्रयलक्षणेन अपने स्वरूपको जान और सभी परके भावोंको [ ज्ञात्वा ] जानकर [ इदं मम ] ये मेरे हैं [ इति च वचनं ] ऐसा वचन कः नाम बुधः ] कोन बुद्धिमान् [ भणेत् ] कहेगा ? ज्ञानी पंडित तो नहीं कह सकता । कैसा है ज्ञानी ? [आत्मानं ] अपने आत्माको [ शुद्धं जानन् ] शुद्ध जाननेवाला है । टीका–जो पुरुष आत्मा और परके निश्चित स्वलक्षणके विभागमें पडनेवाली प्रज्ञाकर ज्ञानी होता है वह पुरुष निश्चयकर एक चैतन्यमात्र अपने भावको तो अपना जानता है और बाकी के सभी मेरे हैं' ऐसे किस ' भावको परके जानता है । ऐसा जानताहुआ परके भावोंको तरह कह सकता है ? ज्ञानी तो नहीं कहता क्योंकि पर और आपमें निश्चयसे स्वस्वामि - - पनेके संबंधका असंभव है । इसलिये सर्वथा चिद्भाव ही एक ग्रहण करने योग्य है अवशेष सभी भाव त्यागने योग्य ऐसा सिद्धांत है । भावार्थ - लोकमें भी यह न्याय है कि जो सुबुद्धि न्यायवान् है वह परके धनादिकको अपना नहीं कहता, उसी तरह सम्यग्ज्ञानी भी समस्त परद्रव्यको अपना नहीं बनाता अपने निजभावको ही अपने जान ग्रहण करता है | अब इस अर्थका कलशरूप १८५ वां काव्य कहते हैं - सिद्धांतो इत्यादि । अर्थ- जिनके चित्तका चरित्र उज्वल ( उत्कट ) है ऐसे मोक्षके इच्छक पुरुष हैं वे इस सिद्धांतको सेवन करो 'जो मैं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही सदा हूं और ये जो अनेक प्रकारके भिन्न लक्षणरूप भाव हैं वे मैं नहीं हूं क्योंकि वे सभी
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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