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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यः स स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबंधः । निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ॥ २४५ ॥ एवं सम्यग्दृष्टिर्वर्तमानो बहुविधेषु योगेषु । अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा ॥ २४६ ॥ यथा स एव पुरुषः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणस्तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् रजसा न बध्यते स्नेहाभ्यंगस्य बंधहेतोरभावात् । तथा सम्यग्दृष्टिः, आत्मनि रा ३३८ [ बंध दृष्टांतो गतः । अथ दाष्टतमाह : ; - एवं सम्मादिट्ठी वहंतो बहुविहेसु जोगेसु एवं पूर्वोक्तदृष्टांतेन सम्यग्दृष्टिर्जीवः विविधयोगेषु नाना प्रकारमनोवचनकायव्यापारेषु वर्तमानः । अकरंतो उवओगे रागादी निर्मलात्मतत्त्वसभ्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाणां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां सद्भावात् रागाद्युपयोगान् परिणामानकुर्वाणः सन् णेव वज्झदि रयेण कर्मरजसा न बध्यते । एवं तैलम्रक्षणाभावे यथा रजोबंधो न भवति तथा वीतरागसम्यग्दृष्टे इसके बंधका हेतु चिकनाईके लेपका अभाव है । उसीतरह सम्यग्दृष्टि आत्मामें रागादिकोंको नहीं करता स्वभावसे ही कर्मयोग्य पुगलोंसे भरे उसी लोकमें उसी काय वचन मनकी क्रियाको करता हुआ उन्हीं अनेक प्रकारके करणोंकर उन्हीं सचित्त अचित्त वस्तु ओंका घात करता कर्मरूपरजकर नहीं बंधता । क्योंकि इसके बंधका कारण रागके योगका अभाव है । भावार्थ- सम्यग्दृष्टि के पूर्वोक्त सब संबंध होनेपर भी रागके संबंध अभाव है इसलिये कर्मबंध नहीं होता । इसका समर्थन पहले कह आये हैं || अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं—लोकः कर्म इत्यादि । अर्थ — इसकारण कमकर भरा हुआ लोक हो, मन वचन कायके चलनस्वरूप योग भी रहो, पूर्वोक्त करण भी होवें, और पूर्वकथित चैतन्य अचैतन्यका घात करना रहो परंतु यह सम्यग्दृष्टि रागादिकोंको उपयोगभूमिमें नहीं करता केवल एक ज्ञानरूप होता है इसलिये पूर्वोक्त किसी भी कारण से बंधको प्राप्त नहीं होता यह निश्चल सम्यग्दृष्टि है । अहो देखो ! यह सम्यग्दर्शनकी अद्भुत महिमा है । भावार्थ — यहां सम्यग्दृष्टिका अद्भुत माहात्म्य कहा है और लोक, योग करण, चैतन्य चैतन्यका घात — वे बंधके कारण नहीं कहे हैं। यहां ऐसा मत समझना कि पर जीवकी हिंसासे बंध नहीं कहा इसलिये स्वच्छंद होके हिंसा करनी । यहां तो अबुद्धिपूर्वक कभी परजीवका घात भी हो जाता है उससे बंध नहीं होता । और जहां पर बुद्धिपूर्वक जीव मारनेके भाव होंगे वहां तो अपने उपयोगसे रागादिकका सद्भाव आयेगा वहां हिंसासे बंध होगा ही । जिस जगह जीवको जिवानेका अभिप्राय है उसको भी निश्चयनयमें मिध्यात्व कहते हैं तो मारनेका अभिप्राय मिध्यात्व 1
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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