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________________ अधिकारः ७] समयसारः। ३३९ गादीनकुर्वाणः सन् तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तेरैवानेकप्रकारकरणैः, तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् कर्मरजसा न बध्यते रागयोगस्य बंधहेतोरभावात् । “लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु न परिस्पन्दात्मकं तत् कर्म तान्यस्मिन् करणानि संतु चिदचिव्यापादनं चास्तु तत् । रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन् केवलं बंधं नैव कुतोप्युपेत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्रुवः ॥ १६५ ॥ तथापि न निरर्गलं चरितुमीक्षते ज्ञानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः । अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च ॥१६६ ॥ जानाति यः स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहुर्मिथ्यादृशः स नियतं स हि बंधहेतुः ॥१६७ ॥"२४२ ।२४३।२४४।२४५।२४६॥ र्जीवस्य रागाद्यभावाद्वंधो न भवति, इति बंधाभावकारणतात्पर्यकथनरूपेण गाथापंचकं गतं । किं च यथात्र पातनिकायां भणितं, संज्ञानिजीवस्य शांतरसे स्वामित्वं, अज्ञानिनस्तु शृंगाराद्यष्टरसानां स्वामित्वं, तथाध्यात्मविषये नाटकावतारप्रस्तावे नवरसानां स्वामित्वं ज्ञातव्यं । इति सूत्र क्यों न होना ? होगा ही । इसलिये कथनको नयविभागसे यथार्थ समझ श्रद्धान करना । सर्वथा एकांत मानना तो मिथ्यात्व है ॥ अब इसी अर्थके दृढ करनेको व्यवहारनयकी प्रवृत्ति करनेके लिये काव्य कहते हैं तथापि इत्यादि । अर्थ-तथापि अर्थात् लोक आदि कारणोंसे बंध नहीं कहा और रागादिकसे ही बंध कहा है तौभी ज्ञानियों को मर्यादारहित स्वच्छंद प्रवर्तना योग्य नहीं कहा क्योंकि निरर्गल ( स्वच्छंद ) प्रवर्तना ही बंधका ठिकाना है ज्ञानियोंके विना वांछा कार्य होता है वह बंधका कारण नहीं कहा क्योंकि जानता भी है और कर्मको करता भी है ये दोनों क्रियायें क्या विरोधरूप नहीं है ? करना और जानना तो निश्चयसे विरोधरूप ही है ॥ भावार्थ-पहले काव्यमें लोक आदि बंधके कारण नहीं कहे उसजगह ऐसा नहीं समझना कि बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति बंधके कारणोंमें सर्वथा ही निषेध की गई है। इसलिये ज्ञानियोंकी अबुद्धिपूर्वक विना इच्छाके प्रवृत्ति होती है वहां बंध नहीं कहा । इसकारण ज्ञानियोंको स्वच्छंद प्रवर्तना तो कहा ही नहीं है बेमर्याद प्रवर्तना तो बंधका ही ठिकाना है । जाननेमें और करनेमें तो परस्पर विरोध है। ज्ञाता रहेगा तब तो बंध न होगा यदि कर्ता होगा तो अवश्य बंध होगा ॥ अब कहते हैं कि जो जानता है वह करता नहीं है और जो करता है वह जानता नहीं है । जो करना है कि बह कर्मका राग है वही अज्ञान है और अज्ञान ही बंधका कारण है । ऐसा काव्य कहते हैं-जानाति इत्यादि । अर्थ-जो जानता है वह कर्ता नहीं है और जो करता है वह जानता नहीं है। जो करना है वह निश्वयसे
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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