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________________ ३३६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [बंधत्ताचित्तवस्तूपघातः समितितत्पराणामपि तत्प्रसंगात् । ततो न्यायवलेनैतदेवायातं यदुपयोगे रागादिकरणं स बंधहेतुः । “न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बंधकृत् । यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः स एव किल केवलं भवति बंधहेतुर्नृणां ॥१६४ ॥” २३७।२३८।२३९।२४०।२४१॥ जह पुण सो चेव णरो हे सव्वह्मि अवणिये संते। रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि सत्थेहिं वायामं ॥ २४२॥ छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सचित्ताचित्ताणं करेइ व्वाणमुवघायं ॥ २४३ ॥ त्राणामभावात् मिथ्यात्वरागाद्युपयोगान् परिणामान् कुर्वाणः सन् कर्मरजसा लिप्यते बध्यत इत्यर्थः । एवं यथा तैलम्रक्षितस्य रजोबंधो भवति तथा मिथ्यात्वरागादिपरिणतस्य जीवस्य कर्मबंधो भवति इति बंधकारणतात्पर्यकथनरूपेण सूत्रपंचकं गतं ॥ २३७/२३८।२३९।२४० ।२४१ ॥ अथ गाथापंचकेन वीतरागसम्यग्दृष्टेबैधाभावं दर्शयति;-यथा स एव पूर्वोक्तो नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति धूलिबहुलस्थाने शस्त्रैर्व्यायाम अभ्यासं श्रमं करोतीति प्रथमगाथा गता । छिनत्ति भिनत्ति च तथा, कान्? तालतमालकदलीवंशपिंडीसंज्ञान् वृक्षविशेषान् । तत्संबंधिसचित्ताचित्तद्रव्याणामुपघातं च करोति इति द्वितीयगाथा गता । उपघातं कुर्वाणस्य तस्य नानाविधैवैलिये चारित्रमोहसंबंधी किंचित् बंध होता है इसकारण सर्वथा बंधके अभावकी अपेक्षामें इनका नाम नहीं लिया सो अंतरंग अपेक्षा ये भी निर्बध ही जानने ॥ आगे इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं—न कर्म इत्यादि । अर्थ-कर्म बंधका करनेवाला कर्मयोग्य पुद्गलोंकर बहुत भरा लोक कारण नहीं है, चलने स्वरूप काय वचन मनकी क्रियारूप योग भी कारण नहीं हैं, अनेक प्रकारके करण भी कारण नहीं है और चेतन अचेतनका घात भी कारण नहीं है। परंतु आत्मा जब रागादिभावोंके साथ एकताको प्राप्त होता है सो ही एक पुरुषों के बंधका कारण है.॥ भावार्थ-यहां निश्चयनयकर एक रागादिकको ही बंधका कारण कहा है ॥ २३७।२३८।२३९।२४०।२४१ ॥ ___ आगे सम्यग्दृष्टि, उपयोगमें रागादिकोंको नहीं करता अर्थात् उपयोगके और रागादिकके आपसमें भेद जान रागादिकका स्वामी नहीं होता इसलिये उसके पूर्वोक्त चेष्टासे बंध नहीं होता ऐसा कहते हैं;-[ यथा] जैसे [पुनः स चैव] फिर वोही [नरः] मनुष्य [ सर्वस्मिन् स्नेहे अपनीते ] तैलादिक सब चिकनी वस्तुको दूर करके [ रेणुबहुले ] बहुत रजवाले [ स्थाने ] स्थानमें [ शस्त्रैः व्यायाम करोति ] शस्त्रोंका अभ्यास करता है, [ तालीतलकदलीवंशपिंडीः ] तालवृक्षकी जड़को केलेके वृक्षको तथा वांसके विड़ेको [छिनत्ति च भिनत्ति] छेदन भेदन करता है १आत्मा.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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