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________________ ३३५ अधिकारः ७] समयसारः। स्नेहाभ्यंगकरणं स बंधहेतुः । एवं मिथ्यादृष्टिः आत्मनि रागादीन् कुर्वाणः स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणोऽनेकप्रकारकरणैः सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् कर्मरजसा बध्यते । तस्य कतमो बंधहेतुः ? न तावत्स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुलो लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् । न कायवाङ्मनःकर्म, यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसंगात् । नानेकप्रकारकरणानि, केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसंगात् । न सचिइति द्वितीयगाथा गता । उपघातं कुर्वाणस्य तस्य नानाविधैर्वैशाखस्थानादिकरणविशेषैनिश्चयतश्चित्यतां विचार्यतां किंप्रत्ययकः किंनिमित्तकः रजोबंधः ? इति पूर्वपक्षरूपेण गाथात्रयं गतं । अत्रोत्तर—यः स्नेहभावस्तस्मिन्नरे स पूर्वोक्तस्तैलाभ्यंगनरूपः तेन तस्य रजोबंध इति निश्चयतो विज्ञेयं न कायादिव्यापारचेष्टाभिः शेषाभिरित्युत्तरगाथा। एवं सूत्रचतुष्टयेन प्रश्नोत्तररूपेण दृष्टांतो गतः । अथ दार्टीतमाह-एवं मिच्छादिट्ठी वहतो वहुविहासु चेट्ठासु एवं पूर्वोक्तदृष्टांतेन मिथ्यादृष्टिीवः विविधासु कायव्यापारचेष्टासु वर्तमानः रागादी उवआगे कुव्वंतो लिप्पदि रयेण शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्त्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाणां सम्यग्दर्शनज्ञान चारिबंधका कारण अतिशयवाला कोंन है ? वहां प्रथम तो स्वभावसे ही कर्म योग्य पुद्गलोंकर बहुत भरा हुआ लोक बंधका कारण नहीं है, यदि उनसे बंध हो तो लोकमें सिद्ध भी मौजूद हैं उनके भी बंधका प्रसंग आयेगा ॥ काय वचन मनकी क्रिया स्वरूप योग भी बंधके कारण नहीं हैं, यदि उनसे बंध हो तो मन वचन कायकी क्रियावाले यथाख्यात संयमियोंके भी बंधका प्रसंग प्राप्त होगा । अनेक प्रकारके करण भी बंधके कारण नहीं हैं, यदि उनसे बंध हो तो केवल ज्ञानियोंके भी उन करणोंकर बंधका प्रसंग आयेगा । तथा सचित्त अचित्त वस्तुओंका उपघात भी बंधका कारण नहीं है, यदि उनसे बंध हो तो जो साधु समितिमें तत्पर हैं यत्नरूप प्रवृत्ति करते हैं उनके भी सचित्त अचित्तके घातसे बंधका प्रसंग आयेगा । इसलिये न्यायके बलकर यही सिद्ध हुआ कि जो उपयोगमें रागादिकका करना है वही बंधका कारण है ॥ भावार्थ-यहां निश्चय प्रधान कर कथन है । जहां निर्बाध हेतुकर सिद्धि हो वही निश्चय है । सो बंधका कारण विचारनेसे यही निर्बाध सिद्ध हुआ कि मिथ्यादृष्टि पुरुष राग द्वेष मोह भावोंको अपने उपयोगमें करता है इसलिये ये रागादिक ही बंधके कारण हैं। तथा अन्य जो कर्म योग्य पुद्गलोंसे भरा लोक, मन वचन कायके योग, अनेक कारण और चेतन अचेतनका घात ये बंधके कारण नहीं हैं । यदि इनसे बंध हो तो सिद्धोंके, यथाख्यात चारित्रवालोंके, केवल ज्ञानियोंके तथा समितिरूप प्रवर्तनेवाले मुनियों के बंधका प्रसंग आजायगा; परंतु बंध उनके नहीं होता । इसलिये इस हेतुमें व्यभिचार हुआ इसलिये बंधका कारण रागादिक ही हैं यह निश्चय है। यहां समितिरूप प्रवर्तनेवाले मुनिका नाम तो कहा और अविरत देशविरतका नाम ही न लिया। सो इनके वाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नहीं है इस
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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