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________________ ३३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [बंधनानेकप्रकारकरणानि, स्नेहानभिव्यक्तानामपि तैस्तत्प्रसंगात् । न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, स्नेहानभिव्यक्तानामपि तस्मिंस्तत्प्रसंगात् । ततो न्यायबलेनैवैतदायातं यत्तस्मिन् पुरुषे व्याख्यानं क्रियते-यथा नाम स्फुटमहो वा कश्चित्पुरुषः स्नेहाभ्यक्तः सन् रजोबहुलस्थाने स्थित्वा शस्त्रैर्व्यायाममभ्यासं श्रमं करोति इति प्रथमगाथा गता । छिनत्ति भिनत्ति च तथा । कान् ? तालतमालकदलीवंशाशोकसंज्ञान् वृक्षविशेषान् तत्संबंधिसचित्ताचित्तद्रव्याणामुपघातं च करोति सचिक्कण भाव है [ तेन ] उससे [ तस्य रजोबंधः ] उसके रजका बंध लगता है [निश्चयतः विज्ञेयं ] यह निश्चयसे जानना। [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायकी चेष्टाओंसे [न] रजका बंध नहीं है [एवं ] इसप्रकार [मिथ्यादृष्टि:] मिथ्यादृष्टि जीव [ बहुविधासु चेष्टासु] बहुत प्रकारकी चेष्टाओंमें [वर्तमानः ] वर्तमान है वह [ उपयोगे ] अपने उपयोगमें [ रागादीन् कुर्वाणः ] रागादि भावोंको करता हुआ [ रजसा ] कर्मरूप रजकर [लिप्यते] लिप्त होता है बंधता है ॥ टीका-इस लोकमें निश्चयकर जैसे कोई पुरुष स्नेह ( तैल ) आदिककर मर्दन युक्त हुआ जिसमें अपने स्वभावसे ही रज बहुत है ऐसी भूमीमें स्थित हुआ शस्त्रोंका अभ्यासरूप कार्य करता अनेक प्रकारके करणोंकर सचित्त अचित्त वस्तुओंको काटता हुआ उस भूमिकी रजकर बंधता है लिप्त होता है । उसका विचार किया जाय कि बंधका कारण इनमें कोंन है ? वहां प्रथम तो स्वभावसे ही जिसमें बहुत रज है ऐसी भूमि वह रजके बंधनेको कारण नहीं है। यदि भूमि ही कारण हो तो जिनके तैल आदिक नहीं लगा और भूमिमें तिष्ठते हैं उनके भी रजका बंध लगना चाहिये ऐसा नहीं है। तथा शस्त्रोंका अभ्यास करना कर्म है वह भी उस रजके बंध लगनेको कारण नहीं है। जो शस्त्रोंका अभ्यास बंधनेका कारण हो तो जिनके तैल आदि नहीं लगा उनके भी उस शस्त्राभ्यासके करनेसे रजका बंध लग जाय ऐसा होता नहीं । और भी अनेक प्रकारके करण उस रजके बंधनेको कारण नहीं है यदि ऐसा हो तो जिनके तेल आदि नहीं लगा उनके भी उन करणोंकर रजका बंध लगना चाहिये । तथा सचित्त अचित्त वस्तुओंका उपघात भी उस रजके लगनेको कारण नहीं है यदि ऐसा हो तो जिनके तेल आदि नहीं लगा उनके भी सचित्त अचित्तका घात करनेपर रजका बंध लगना चाहिये । इसलिये न्यायके बलसे यह सिद्ध हुआ कि उस पुरुषमें तैल आदि सचिकनका मर्दन करना है वही बंधका कारण है। ऐसे ही मिथ्यादृष्टि जीव अपने आत्मामें राग आदि भावोंको करता हुआ स्वभावसे ही कर्मके योग्य जो पुद्गल उनकर भरे हुए लोकमें काय वचन मनकी क्रियाको करता हुआ अनेक प्रकारके करणोंकर सचित्त अचित्त वस्तुओंको घातता कर्मरूप रजकर बंधता है । वहां विचारा जाप कि
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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