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________________ २६० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ संवरस्मिन्नाकाश एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति । ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्धं भेदविज्ञानं ॥ "चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयोरंतर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना संतो नास्ति खलु स्फुटं क्रोधः ॥ अट्टवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णथि उवओगो तथैव चाष्टविधज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणि, औदारिकशरीरादिनोकर्मणि चैव नास्त्युपयोगः उपयोगशब्दवाच्यः शुद्धबुद्धैकस्वभावः परमात्मा उवओगमि य कम्मे णोकम्मे चावि णो अस्थि उपयोगे शुद्धात्मनि शुद्धनिश्चयेन कर्म नोकर्म चैव नास्ति इति । एदं तु अविवरीदं णाणं जइया दु होदि जीवस्स इदं तु चिदानंदैकस्वभावशुद्धात्मसंवित्ति काश द्रव्य एक ही है उसको अपनी बुद्धिमें स्थापितकरके आधाराधेयभाव कल्पित कीजिये तब आकाशके सिवाय अन्यद्रव्योंका तो अधिकरणरूप आरोपका निरोध हुआ इसीसे बुद्धिको भिन्न आधारकी अपेक्षा नहीं रही । और जब भिन्न आधारकी अपेक्षा न रही तब बुद्धिमें यही ठहरा कि आकाश एक ही है वह एक आकाशमें ही प्रतिष्ठित है आकाशका आधार अन्यद्रव्य नहीं है आप अपने ही आधार है । ऐसी भावना करनेवालेके अन्यका अन्यमें आधाराधेयभाव नहीं प्रतिभासता । इसीतरह जब एक ही ज्ञानको अपनी बुद्धिमें स्थापकर आधाराधेयभाव कल्पना कीजिये तब अवशेष अन्यद्रव्योंका अधिरोप करनेका निरोध हुआ क्योंकि बुद्धिको भिन्न आधारकी अपेक्षा नहीं रहती । जब भिन्न आधारकी अपेक्षा ही बुद्धिमें न रही तब एक ज्ञान ही एक ज्ञानमें प्रतिष्ठित सिद्ध हुआ। ऐसी भावना करनेवालेको अन्यका अन्यमें आधाराधेयभाव नहीं प्रतिभासता । इसलिये ज्ञान तो ज्ञानमें ही है और क्रोधादिक क्रोधादिकमें है । इसतरह ज्ञानका और क्रोधादिकका तथा कर्म नोकर्मका भेदका ज्ञान अच्छीतरह सिद्ध हुआ ॥ भावार्थ-उपयोग तो चैतन्यका परिणमन है वह ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादिक भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म ये सब पुद्गलद्रव्यके ही परिणाम हैं वे जड़ हैं, इनका और ज्ञानका प्रदेशभेद है इसलिये अत्यंत भेद है । इसकारण उपयोगमें तो क्रोधादिक, कर्म, नोकर्म नहीं हैं और क्रोधादिक, कर्म, नोकममें उपयोग नहीं है । इसतरह इनमें परमार्थस्वरूप आधाराधेयभाव नहीं है अपना अपना आधाराधेयभाव अपने अपनेमें है । इसप्रकार इनमें परस्पर परमार्थसे अत्यंतभेद है । ऐसा भेद जानना वह भेदविज्ञान है वह अच्छीतरह सिद्ध होता है ॥ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-चैद्रूप्यं इत्यादि । अर्थ-यह निर्मल भेदज्ञान उदयको प्राप्त होता है सो इसका निश्चय करनेवाले सत्पुरुषोंको संबोधनकर कहते हैं
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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