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________________ अधिकारः ५] समयसारः । २५९ जानतास्वरूपं तथा क्रुध्यतादिरपि क्रोधादीनां च यथा क्रुध्यतादि स्वरूपं तथा जानतापि कथंचनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानतायाः क्रुध्यतादेश्च भावभेदेनोद्भासमानत्वात् खभावभेदाच वस्तुभेद एवेति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वं । किं च यदा किलैकमेवाकाशं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यांतराधिरोपितरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैक तद्यथा-प्रथमतस्तावच्छुभाशुभकर्मसंवरस्य परमोपायभूतं निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानलक्षणं भेदज्ञानं निरूपयति;-उवओगे उवओगो ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणत्वादभेदनयेनात्मैवोपयोगस्तस्मिन्नुपयोगाभिधाने शुभात्मन्युपयोग आत्मा तिष्ठति कोहादिसु णत्थि कोवि उव ओगो शुद्धनिश्चयेन क्रोधादिपरिणामेषु नास्ति कोप्युपयोग आत्मा कोहे कोहो चेव हि क्रोधे क्रोधश्चैव हि स्फुटं तिष्ठति उवओगे णत्थि खलु कोहो उपयोगे शुद्धात्मनि [तदा] उसकालमें [ उपयोगशुद्धात्मा ] केवल उपयोगस्वरूप शुद्धात्मा [किंचित् भावं ] उपयोगके विना अन्य कुछ भी भाव [ न करोति] नहीं करता । टीका-निश्चयकर एक द्रव्यका दूसरा द्रव्य कुछ भी संबंधी नहीं है क्योंकि द्रव्य भिन्न २ प्रदेशरूप है इसलिये एक सत्ताकी अप्राप्ति है हर एक द्रव्यकी सत्ता जुदी २ है और सत्ताके एक न होनेसे अन्य द्रव्यका अन्यद्रव्यके साथ आधाराधेयसंबंध भी नहीं है । इसकारण द्रव्यका अपने स्वरूपमें ही प्रतिष्ठारूप आराधेयसंबंध स्थित है इसलिये ज्ञान आधेय जानपने अपने स्वरूप आधारमें प्रतिष्ठित है क्योंकि जानपना ज्ञानसे अभिन्नस्वरूप है अर्थात् भिन्न प्रदेशरूप नहीं है इसकारण जानने क्रियास्वरूप ज्ञान है वह ज्ञानमें ही है, और क्रोधादिक हैं वे क्रोधरूप क्रिया जो क्रोधपना अपना स्वरूप उसीमें प्रतिष्ठित हैं। क्योंकि क्रोधपनारूप क्रिया क्रोधादिकसे अभिन्नप्रदेश है इसलिये को. धरूप क्रिया क्रोधादिमें ही होती है । तथा क्रोधादिकमें अथवा कर्म नोकर्ममें ज्ञान नहीं है और ज्ञानमें क्रोधादिक अथवा कर्म नोकर्म नहीं हैं क्योंकि ज्ञानका तथा क्रोधादिक और कर्म नोकर्मका आपसमें स्वरूपका अत्यंत विपरीतपना है उनका स्वरूप एक नहीं है । इसलिये परमार्थरूप आधाराधेयसंबंधका शून्यपना है । जैसे ज्ञानका जाननक्रियारूप जानपना स्वरूप है उसतरह क्रोधरूप क्रियापनास्वरूप नहीं है, तथा जैसे क्रोधादिकका क्रोधपना आदिक क्रियापनास्वरूप है उसतरह जाननक्रियास्वरूप नहीं है। किसीतरहसे ज्ञानको क्रोधादि क्रियारूप परिणामस्वरूप स्थापन नहीं किया जाता क्योंकि जाननक्रियाके और क्रोधरूपक्रियाके स्वभावको भेदकर प्रगट प्रतिभासमानपना है, स्वभावके भेदसे ही वस्तुका भेद है यह नियम है। इसलिये ज्ञानका और अज्ञानस्वरूप क्रोधादिकका आधाराधेयभाव नहीं है। यहां दृष्टांतकर विशेष कहते हैं। जैसे आ
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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