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________________ अधिकारः ५] समयसारः । २६१ द्वितीयच्युताः ॥” एवमिदं भेदज्ञानं यदा ज्ञानस्य वैपरीत्यकणिकामप्यनासादयदविचलितमवतिष्ठते तदा शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञानं ज्ञानमेव केवलं सन्न किंचनापि रागद्वेषमोहरूपं भावमारचयति । ततो भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलभंः प्रभवति । शुद्धात्मोपलंभात् रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभवति ॥ १८१ ॥ १८२ ॥ १८३ ॥ रूपं विपरीताभिनिवेशरहितं भेदज्ञानं यदा भवति जीवस्य तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा तस्माद्भेदविज्ञानात्स्वात्मोपलंभो भवति शुद्धात्मोपलंभे जाते किमपि मिथ्यात्वरागादिभावान्न करोति न परिणमति । कथंभूतः सन् ? निर्विकारचिदानंदैकशुद्धोपयोगशुद्धात्मा शुद्धस्वभावः सन्निति । यत्रैवंभूतो संवरो नास्ति तत्रास्रवो भवत्यस्मिन्नधिकारे सर्वत्र ज्ञातव्यमिति तात्पर्य । एवं पूर्वप्रकारेण भेदविज्ञानात् शुद्धात्मोपलाभो भवति । शुद्धात्मोपलंभे सति मिथ्यात्वरागादिभावं न करोति ततो नवतरकर्मसंवरा भवतीति संक्षेपव्याख्यानमु कि हे सत्पुरुषो! तुम इसको पाकर दूसरे रागादिभावोंसे रहित हुए एक शुद्ध ज्ञानघनके समूहको आश्रयकर उसमें लीन हुए बहुत आनंद मानो । क्या करके यह ज्ञान उदय होता है ? चैतन्यरूपको धारण करता ज्ञान और जडरूपको धारता हुआ राग इन दोनोंका जो अज्ञानदशामें एकपनासा दीखता था उसको अंतरंगमें अनुभवके अभ्यासरूप बलकर अच्छीतरह विदारणकर ( सब प्रकार विभागकर ) उदय होता है ॥ भावार्थ-ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादि पुद्गलके विकार होनेसे जड़ हैं सो दोनों अज्ञानसे एक जड़रूप भासते हैं । सो भेदविज्ञान जब प्रगट होजाता है तब ज्ञानका और रागादिकका भिन्नपना अंतरंग अनुभवके अभ्याससे प्रगट होता है तब ऐसा जानता है कि, ज्ञानका स्वभाव तो जाननेमात्र ही है और ज्ञानमें रागादिककी कलुषता ( मलिनता) आकुलतारूप संकल्प विकल्प भासते हैं ये सब पुद्गलके विकार हैं जड़ हैं। ऐसे ज्ञान और रागादिकके भेदका आस्वाद आता है । सो यह भेदविज्ञान सब विभावभावोंके मेंटनेको कारण होता है और आत्मामें परमसंवर भावको प्राप्त करता है । इसलिये सत्पुरुषोंसे कहते हैं कि इसको पाकर रागादिकोंसे रहित होके शुद्ध ज्ञानघन आत्माका आश्रय लेकर आनंदको प्राप्त होओ ॥ अब कहते हैं कि ऐसे यह भेदविज्ञान, जिस समय ज्ञानमें रागादि विकाररूप विपरीतपनेकी कणिकाको नहीं प्राप्त करता अविचलित होता है उससमय वह ज्ञान शुद्धोपयोग स्वरूपपनेकर ज्ञान ही रूप केवल हुआ किंचिन्मात्र भी राग द्वेषमोहभावको नहीं प्राप्त होता । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञानसे शुद्धात्माकी प्राप्ति होती है और शुद्धात्माकी प्राप्तिसे राग द्वेष मोह स्वरूप आस्रवभावोंका अभावस्वरूप संवर होता है ॥ १८१ । १८२ । १८३ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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