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________________ समयसारः। स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ॥ ४९ ॥” ७५ ॥ - पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत् णवि परिणमइ ण गिलइ उपजइ ण परदव्वपजाये। णाणी जाणतो वि हु पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥ ७६॥ नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधं ॥ ७६ ॥ यतो यं प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्म पुद्गलद्रव्येण स्वयमंतापकत्वेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमंतापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणाम निश्चयशुद्धात्मानं परमसमाधिबलेन भावयन्सन् ज्ञानी भवति ॥ ७५ ॥ इति ज्ञानीभूतजीवलक्षणकथनरूपेण गाथा गता । अथ पुण्यपापादिपरिणामान व्यवहारेण करोतीति प्ररूपयति; कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता केण सो उवाएण। धम्मादी परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी॥ कर्ता आत्मा भणितः न च कर्ता केन स उपायेन । धर्मादीन् परिणामान् यः जानाति स भवति ज्ञानी ॥ कत्ता आदा भणिदो कर्त्तात्मा भणितः ण य कत्ता सो न च कर्ता भवति स आत्मा केण उवायेण केनाप्युपायेन नयविभागेन । केन नयविभागेनेति चेत् , निश्चयेन अकर्ता व्यवहारेण कर्तेति । कान् । धम्मादी परिणामे पुण्यपापादिकर्मवह पुद्गलके और आत्माके कर्ता कर्म भावको नहीं जानता तभी ज्ञानी होता है। कर्ताकर्मभावकर रहित होके ज्ञाता द्रष्टा जगतका साक्षीभूत होता है ॥ ७५ ॥ आगे पूछते हैं कि जो जीव पुद्गलकर्मको जानता है उसका पुद्गलके साथ कर्ता कर्मभाव है कि नहीं है ? उसका उत्तर कहते हैं;-[ज्ञानी] ज्ञानी [ अनेकविधं] अनेक प्रकार [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलद्रव्य के पर्यायरूप कर्मोंको [ जानन् अपि ] जामता है तौभी [ खलु ] निश्चयकर [ परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यके पर्यायोंमें [न परिणमति ] उन स्वरूप नहीं परिणमता [न गृह्णाति ] ग्रहण भी नहीं करता और [म उत्पद्यते ] उनमें उत्पन्न भी नहीं होता ॥ टीका-यह ज्ञानी पुद्गलके परिणामस्वरूप कर्मको जानता भी है । कर्मका स्वरूप सामान्यपनेसे तीन प्रकार हैप्राप्य, विकार्य, निवर्त्य । जिस सिद्ध हुएको प्रहण करना वह प्राप्य है, वस्तुकी अवस्था पलटना विकाररूप होना वह विकार्य है, और जो अवस्था पहले तो नहीं थी फिर उत्पन्न हो उसे निवर्य कहते हैं । ऐसा कर्मका स्वरूप है वह पुद्गलका परिणाम तीनों ही स्वरूपकर पुद्गलद्रव्यके व्यापने योग्य है सो पुद्गलद्रव्य आप अंतर्व्यापक होके आदि मध्य अंत तीनों भावों में व्यापकर उसको ग्रहण करता है उसरूप परिणमता है उस १७ समय०
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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