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________________ १२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । कर्मत्वासिद्धावात्मपरिणामात्मनोर्घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावादात्मद्रव्येण का स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्पुद्गलपरिणामज्ञानं कर्मत्वेन कुर्वन्तमात्मानं जानाति सोत्यंत विविक्तज्ञानीभूतो ज्ञानी स्यात् । न चैवं ज्ञातुः पुद्गलपरिणामो व्याप्यः पुद्गलात्मनो यज्ञायकसंबंधव्यवहारमात्रे सत्यपि पुद्गलपरिणामनिमित्तकस्य ज्ञानस्यैव ज्ञातुव्याप्यत्वात् । “व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः । इत्युद्दामविवेकघस्मरमहो भारेण मिदंस्तमो ज्ञानीभूय तदा स्वपरिणामैरेव सह कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्चेति प्रतिपादनरूपेण 'णिच्छयणयस्स' इत्यादिसूत्रमेकं । ततश्च व्यवहारेण जीवः पुद्गलकर्मणां कर्ता भोक्ता चेति कथनरूपेण 'ववहारस्सदु' इत्यादिसूत्रमेकं । एवं ज्ञानीजीवस्य विशेषव्याख्यानमुख्यत्वेनैकादशगाथाभिर्द्वितीयस्थले समुदायपातनिका । तद्यथा-अथ कथमात्मा ज्ञानीभूतो लक्ष्यत इति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति;कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं ण करेदि एदमादा जो जाणदि यथा मृत्तिका कलशमुपादानरूपेण करोति तथा कर्मणः नोकर्मणश्च परिणाम पुद्गलेनोपादानकारणभूतेन क्रियमाणं न करोत्यात्मेति यो जानाति सो हवदि णाणी स न होनेपर आत्मपरिणामके और आत्माके घट मृतिकाकी तरह व्याप्य व्यापक भावके सद्भावसे आत्मद्रव्यकर्ताने आप स्वतंत्र व्यापक होके ज्ञान नामा कर्म किया है इसलिये वह ज्ञान आप ही आत्मासे व्याप्यरूप होके कर्मरूप हुआ है इसी कारण पुद्गलपरिणामके ज्ञानको कर्मपनेकर कर्ता आत्मा उसे आप जानता है । ऐसा आत्मा पुद्गलपरिणामरूप कर्म नोकर्मसे अत्यंत भिन्न ज्ञानी हुआ ज्ञानी ही है । कर्ता नहीं है । ऐसा होनेपर ज्ञाता पुरुषके पुद्गलपरिणाम व्याप्य स्वरूप नहीं हैं क्योंकि पुद्गल और आत्माका ज्ञेय ज्ञायक संबंध व्यवहार मात्रकर होता हुआ भी जिसको पुद्गल परिणाम निमित्त है ऐसा पुद्गलपरिणामका ज्ञान वही ज्ञाताके व्याप्य है । इसलिये वह ज्ञान ही ज्ञाताका कर्म है। अब इसी अर्थके समर्थनका कलशरूप काव्य कहते हैं । व्याप्य इत्यादि । अर्थव्याप्यव्यापकपना है वह तत्स्वरूपके ही होता है अतत्स्वरूप में नहीं होता और व्याप्य व्यापक भावके संभवविना कर्ता कर्मकी स्थिति क्या है ? कुछ भी नहीं । ऐसे उदार विवेकरूप और समस्तको ग्रासीभूत करनेका स्वभाव जिसका है ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रकाशके भारकर अज्ञानरूप अंधकारको भेदता हुआ यह आत्मा ज्ञानी होकर उससमय कर्तापनेसे रहित हुआ शोभता है ॥ भावार्थ-जो सब अवस्थाओं में व्यापै वह तो व्यापक है और अवस्थाके विशेष हैं वे व्याप्य हैं । ऐसा होनेपर द्रव्य तो व्यापक है सो द्रव्यपर्याय अभेदरूप ही हैं । जो द्रव्यका आत्मा वही पर्यायका आत्मा ऐसा व्याप्य व्यापकभाव तत्स्वरूपमें ही होता है अतत्स्वरूपमें नहीं होता । वहां ऐसा सिद्ध होता है कि व्याप्य व्यापक भावके विना कर्ता कर्मभाव नहीं होता इसतरह जो जानता है
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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