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________________ १३० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्वर्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य पुद्गलकर्म जानतोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः ॥ ७६ ॥ जनितोपाधिपरिणामान् जो जाणदि सो हवदि णाणी ख्यातिपूजालाभादिसमस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितसमाधौ स्थित्वा यो जानाति स ज्ञानी भवति । इति निश्चयनयव्यवहाराभ्यामकर्तृत्वकर्तृत्वकथनरूपेण गाथा गता । अथ पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य पुद्गलेन सह तादात्म्यसंबंधो नास्तीति निरूपयति;-पुग्गलकम्म अणेयविहं कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्येणोपादानकारणभूतेन क्रियमाणं पुद्गलकर्मानेकविधं मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नं जाणतो वि हु विशिष्टभेदज्ञानेन जानन्मपि हु स्फुटं सः । कः कर्ता, णाणी सहजानंदैकस्वभावनिजशुद्धात्मरागाद्यास्रवयोर्भेदज्ञानी णवि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पजदि ण परदव्वपज्जाये तत्पूर्वोक्तं परद्रव्यपर्यायरूपं कर्म निश्चयेन मृत्तिकाकलशरूपेणेव न परिणमति न तादात्म्यरूपतया गृह्णाति न च तदाकारेणोत्पद्यते । कस्मादिति चेत्, मृत्तिकाकलशयोरिव तेन पुद्गलकर्मणा सह तादात्म्यसंबंधाभावात् । तत एतदायाति पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य पुद्गलेन सह निश्चयेन कर्तृकर्मभावो नास्तीति ॥ ७६ ॥ खरूपकर उपजता है इसतरह वह परिणाम पुद्गल द्रव्यकर ही किया गया है ऐसेको ज्ञानी जानता है तौभी आप उसमें अंतर्व्यापक होके बाह्य तिष्ठे परद्रव्यके परिणामको आदि मध्य अंतमें व्यापकर उसरूप नहीं परिणमता । उसको आप ग्रहण नहीं करता उसमें उपजता भी नहीं है । जैसे मट्टी घटरूप होती है उसको ग्रहण करती है उसको उपजाती है उसतरह नहीं है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो प्राप्य विकार्य निर्वय॑स्वरूप व्याप्य लक्षण परद्रव्यका परिणाम स्वरूप कर्म है उसे नहीं करता किंतु उसे जानता हुआ जो ज्ञानी उसका पुद्गलके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है ॥ भावार्थ-पुद्गल कमको जीव जानता है तौभी उसका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है क्योंकि कर्म तीन प्रकारसे कहा जाता है। या तो उस परिणामरूप आप परिणमें वह परिणाम । या आप किसीको प्रहण करै वह वस्तु । या किसीको आप उपजावै वह वस्तु । ऐसें तीनों ही तरहसे जीव अपनेसे जुदे पुद्गलद्रव्यरूप परमार्थसे नहीं परिणमता क्योंकि आप चेतन है पुद्गल जड़ है चेतन जड़रूप नहीं परिणमता । पुद्गलको ग्रहण भी परमार्थसे नहीं करता क्योंकि पुद्गल मूर्तीक है आप अमूर्तीक है अमूर्तीकका ग्रहण योग्य नहीं है । तथा पुद्गलको आप परमार्थसे उपजाता भी नहीं क्योंकि चेतन जड़को किसतरह उपजा सकता है ? इसतरह पुद्गल जीवका कर्म नहीं है और जीव उसका कर्ता नहीं । जीवका स्वभाव ज्ञाता है वह आप ज्ञानरूप परिणमता उसको जानता है । ऐसे जाननेवालेका परके साथ कर्ताकर्मभाव कैसे होसकता है ? नहीं होसकता ॥ ७६ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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