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________________ विवेचना-परोक्ष ज्ञान का स्वरूप अस्पष्ट होता है इस. लिये अनेक विशेष धर्मों का ज्ञान नहीं होता, इस कारण वहां संदेह उत्पन्न होता है । विशेष धर्मों का दर्शन न हो तो संदेह की उत्पत्ति होती है। विशेष धर्मों का दर्शन संदेह की उत्पत्ति का विरोधी है। असिद्ध और अनेकान्तिक आदि हेतुओं से जब ज्ञान उत्पन्न होता है तब विशेष धर्मों की प्रतीति नहीं होती इसलिये वहां संदेह उत्पन्न होता है । विपरीत एक कोटिका प्रतिपादक दोष जब होता है तब भ्रम होता है । पारमार्थिक प्रत्यक्ष वस्तुओं के स्वरूप को यथार्थ रूप से प्रकाशित करता है और अनेक विशेष धर्मों को स्पष्ट रूप से बतलाता है इसलिये उस ज्ञान में सदेह और भ्रम की उत्पत्ति नहीं होती । बाह्य इन्द्रिय और मन से उत्पन्न ज्ञान जो पारमार्थिक प्रत्यक्ष हो तो अवधि आदि प्रत्यक्षों के समान उसमें भी संदेह और भ्रम को संभावना नहीं होनी चाहिए । अवधि आदि प्रत्यक्षों में भ्रम और संदेह नहीं उत्पन्न होते । इन्द्रियों से उत्पन्न सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में संदेह और भ्रम के उत्पन्न होने की संभावना रहती है । एक वस्तु में अनेक धर्म रहते हैं उनमें से विशेष धर्मों का ज्ञान नहीं होता इस लिये अनेक बार कुछ एक धर्मों के विषय में संदेह और भ्रम हो जाते हैं, इसलिये “सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष" परमार्थ की अपेक्षा से परोक्ष ही है। निर्दोष हेतुओं से जब कोई निश्चय होता है तब संकेत का स्मरण आदि करके होता है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में भी पहले संकेत का स्मरण आदि उत्पन्न होता है और पीछे निश्चय होता है । इस कारण से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष निर्दोष अनुमान के समान परोक्ष है । अवधि आदि प्रत्यक्षों में
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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