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से मोक्ष का साधन होनेके नारण द्रव्य होजाती है। आचार्य कहते हैं-भक्तिरूप गुण विरुद्ध विधि के दोष को अनुबन्धसे रहित कर देता है।
विवेचना-कर्मसे फलको प्राप्त करने के लिये कर्म करने की विधि का ज्ञान और एकाग्र चित्त आवश्यक कारण है । जो विधि को नहीं जानता वह प्रतिकूल रीति से भी कार्य करने लगता है । उस दशा में जो फल प्राप्त करना चाहते हैं उस फल की प्राप्ति नही होतो । इतना ही नहीं अनिष्ट फल प्राप्त हो जाता है । आयुर्वेद के शास्त्रों में-तोत्र रोगों के नाश के लिए पारे की भस्म का प्रयोग बहुत उत्तम कहा गया है । चिकित्सा के ग्रन्थ कहते हैं, पारा स्वयं मर जाता है परन्तु रोगी को जीवित कर देता है। जो मनुष्य पारे की भस्म को उचित रीतिसे नहीं बनाता उस के पारे का परिपाक उचित परिणाम में नहीं होता। पूर्णरूप में अपक्व पारे को भस्म यदि रोगी खा ले तो रोग का नाश तो दूर रहा प्राणों का संकट हो जायगा। अज्ञान के कारण प्रतिकूल क्रिया तो है पर अनिष्ट, दुःख फल देती है इसलिए प्रधान रूपसे क्रिया कहने योग्य नहीं है। अयोग्य क्रिया अप्रघान क्रिया है। अप्रधान का परिभाषिक नाम द्रव्य है। इस प्रकार की क्रिया द्रव्य क्रिया कही जाती है ।
विधि के ज्ञान के समान फल प्राप्त करने के लिए काम के करने में चित्त की एकाग्रता भी आवश्यक है । क्रिया के करने में ध्यान न देकर अन्य विषय में ध्यान देनेसे भो अनिष्ट फल प्राप्त