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________________ उन्होंने वहाँ पर दिनमें देखने की इच्छा से चिन्हकर दिए पर आचार्य रुद्रदेव कोयलों को मसलकर धनि उत्पन्न करता हुआ चला गया और कहता गया प्रमाणोसे यहाँ जीव नहीं सिद्ध होते तो भी जिनेन्द्रोंने जन्तुओं का निर्देश किया है । यह सब सुनकर आचार्य श्री विजयसेन ने रुद्रदेव के शिष्योंसे कहा-यह अभव्य है, आप इसको छोड दो । आचार्य रुद्रदेव ही अंगारमर्दक नाम से प्रसिद्ध हुआ । भाव चारित्रसे रहित होने के कारण वह मोक्ष को न प्राप्त कर सका ओर संसार में ही रहा । मूलम् :-क्वचिदनुपयोगेऽपि, यथाऽनाभोगेनेहपरलोकाध शंसालक्षणेनाविधिना च भक्त्यापि क्रियमाणा जिनपूजादि क्रिया द्रव्यक्रियैव, अनुपयुक्तक्रियायाः साक्षान्मोक्षाङ्गत्वाभावात् । भक्त्याऽविधिनापि क्रियमाणा सा पारम्पर्येण मोक्षाङ्गत्वापेक्षया द्रव्यतामश्नुते, भक्तिगुणेनाविधिदोषस्य निरनुब न्धीकृतत्वादित्याचार्याः । अर्थ-कहोंपर उपयोगके अभाव में भी द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है । जैसे उचित ध्यान के बिना और इहलोक परलोक आदि की इच्छारूप विरुद्ध विधिसे भक्ति के साथ भी की जाती हुई जिनपूजा आदि क्रिया द्रव्य क्रिया है । उपयोग रहित क्रिया साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं है । भक्ति के साथ विधि के विरुद्ध की जाती हुई वह जिनपूजा आदि क्रिया परम्परा
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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