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________________ २८ तात्विकार्थान्युपगमपरस्तु निश्चयः, स पुनर्मन्यते पञ्चवर्णो भ्रमरः, बादरस्कन्धत्वेन तच्छरीरस्य पञ्चवर्णपुद्गले निष्पन्नत्वात् शुक्लादीनां च न्यग्भूतत्वेनानुपलक्षणात् । अर्थः- इसी प्रकार लोक में जो अर्थ प्रसिद्ध है उसके कहने में तत्पर नय व्यवहार नय कहा जाता है, जिस प्रकार भ्रमर में पांचों वर्गों के होने पर भी 'भ्रमर श्याम हैं। इस प्रकार का व्यवहार होता है। तात्विक अर्थ को स्वीकार करने में तत्पर निश्चय नय होता है। वह भ्रमर में पांचों वर्गों को स्वीकार करता है। बादर स्कंध होने के कारण उसका शरीर पांच वर्णो के पुद्गलों से उत्पन्न हुआ है, शुक्ल आदि वर्ण न्यून होने से देखने में नहीं आते। विवेचना:- लोक में जिस प्रकार व्यवहार होता है उसको लेकर व्यवहार नय वस्तु का प्रतिपादन करता है । भ्रमर को लोग श्याम कहते हैं इस लिए व्यवहार नय भी उसको श्याम कहता है परन्तु भ्रमर का शरीर स्थूल है इसलिए पुद्गलों से उत्पन्न है। पुद्गल में पांचों वर्ण हैं इसलिए भ्रमर के शरीर में भी पांचों वर्ण हैं । श्याम वर्ण के द्वारा अन्य वर्गों का अभिभव हो गया है इस लिए वे विद्यमान होने पर भी नहीं दिखाई देते । आकाश में नक्षत्र होते हैं पर दिन में सूर्य के प्रकाश से दब जाने के कारण नहीं दिखाई देते। दिन में नक्षत्रों के समान भ्रमर के शरीर में शुक्ल आदि वर्ण विद्यमान हैं। निश्चय नय युक्ति के द्वारा भ्रमर के शरीर को पांच वर्षों से युक्त समझता है। मूलम्:- अथवा एकनयमतार्थग्राही व्यवहारः, सर्व नयमतार्थ ग्राही च निश्चयः । न चैवं निश्चयस्य प्रमाणत्वेन
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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