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________________ २७ मूलम्:- तथा विशेषग्राहिणोऽर्पितनयाः सामान्य ग्राहिणश्चानर्पित नयाः । अर्थ:- इसी प्रकार विशेष का ग्रहण करनेवाले अर्पित नय कहे जाते हैं, और सामान्य के ग्रहण करनेवाले नय अनर्पित नय हैं 1 मूलम्:- तत्रानर्पितनयमते तुल्यमेवरूपं सर्वेषां सिद्धानां भगवताम् | अर्पित नयमते त्वेकद्वित्र्यादि समय सिद्धाः स्वसमानसमय सिध्देश्व तुल्या ।। इति । अर्थ :- अनर्पित नय के मत में सभी सिद्ध भगवानों का एक समान रूप है | अर्पित नय के मत में तो एक समय सिद्ध, सिमय सिद्ध और त्रिसमय लिद्ध, अपने समान समय के सिध्दों केही तुल्य हैं । विवेचनाः अर्पित नय केवल साधारण धर्म का ग्रहण करता है | इसलिए उसके अनुसार सभी सिद्धों का सामान्य रूप है । सिद्धों में परस्पर भेद होने पर भी सिद्धत्व साधारण धर्म है, उसके कारण समस्त सिद्ध समान हैं। विशेष के प्रकाशक अर्पित नय के अनुसार जितने एक समय सिद्ध हैं वे सब परस्पर समान हैं। उनमें एकसमयसिद्धत्व सामान्य धर्म है । यह सामान्य धर्म द्विसमय सिद्ध अथवा त्रिसमय सिद्ध आदि सिद्धों में नहीं है इसलिए विशेष है । इसके कारण एक समय सिद्धों की ही परस्पर समानता है । इसी प्रकार द्विसमय सिद्धों की द्विसमय सिद्धत्व रूप विशेष धर्म के कारण परस्पर समानता है और त्रिसमय सिद्ध आदि के साथ समानता नहीं है । अन्य सिद्धों में भी इसी प्रकार की समानता समझ लेनी चाहिए । - मूलम्:- तथा लोक प्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहारनयः, यथा पञ्चस्वपि वर्णेषु भ्रमरे सत्सु श्यामो भ्रमर इति व्यपदेशः ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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