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________________ अपेक्षा से किसी धर्म का निरूपण हो, तो ऋजुसूत्र नय हो जाता है। इस प्रकार नैगम से लेकर ऋजुसूत्र तक के नय भी जिस ज्ञान को उत्पन्न करते हैं वह शब्द से उत्पन्न होता है। __शब्द पर आश्रित होने पर भी धर्म और धर्मी, सामान्य और विशेष अथवा वर्तमान काल रूप अर्थ के साथ सम्बन्ध होने के कारण नैगम आदि चारको अर्थ नय कहा जाता है । शब्द आदि तीन नय शब्दों के कारण भेद न होने पर भी अर्थों में भेद मानने लगते है। फल का तीन कालों के साथ सम्बन्ध है काल के भेद से फल के स्वरूप में कोई स्पष्ट भेद नहीं प्रतीत होता, परन्तु शब्द नय वर्तमान काल के वाचक शब्द के साथ सम्बन्ध होने के कारण अतीत काल के सम्बन्धी फल से भेद मानता है। यह भेद वस्तु के स्वरूप के कारण नहीं किन्तु शब्द के कारण प्रतीत होता है इसलिए शब्द नय को अर्थात सांप्रत नय को शब्द नय कहा जाता है । समभिरूढ नय भी पर्याय शब्द के भेद से अर्थ में भेद मानता है, वास्तव में जो अभेद हे उसकी उपेक्षा करता है। जब शासन के द्वारा अश्वर्य का प्रकाशन करे तब इन्द्र कहना चाहिए, शक अथवा पुरंदर नहीं । समभिरूढ नय का यह अभिप्राय वाच्य वाचक भाव के साथ सम्बन्ध रखता है। अर्थ के पारमार्थिक स्वरूर के साथ इसका सम्बन्ध नहीं है। एवंभूत भी जब गाय चल रही हो तभी उसको गो शब्द से वाच्य समझता है। जब गाय बैठी हो और सो रही हो तब गो शब्द को उसका वाचक नहीं मानता। इस प्रकार वाच्य वाचक भाव के साथ एवंभूत का भा सम्बन्ध है अतः यह भी शब्द नय कहा जाता है । नैगम आदि का वाच्य-वाचक भाव के साथ सम्बन्ध नहीं है, इसलिए वे अर्थ नय कहे जाते हैं । शब्द के द्वारा वस्तु के स्वरूप को प्रकट करने पर ही आश्रित होने के कारण शब्दों के साथ सम्बन्ध तो अर्थ नयों का भी कम नहीं है। वे भी जिस ज्ञान को उत्पन्न करते हैं वह भी शब्द से उत्पन्न होनेवाला है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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