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नयत्व व्याघातः, सर्व नयमतस्यापि स्वार्थस्य तेन प्राधान्याभ्युपगमात् । .
अर्थः- अथवा एक नय के अभिमत अर्थ को जो ग्रहण करता है वह व्यवहार नय है। समस्त नयों के द्वारा अभिमत अर्थ को जो स्वीकार करता है वह निश्चय नय है। इसके कारण निश्चय प्रमाण नहीं हो जाता और उसका नयभाव दूर नहीं होता। निश्चय नय को जो अर्थ स्वीकृत है उसको वह प्रधान रूप से मानता है। समस्त नय जिस अर्थ को मानते हैं यदि वह उसको अभिमत नहीं, तो वह उसका प्रतिपादन नहीं करता। निश्चय अपने मत के अनुसार अर्थ को प्रधान समझता है । सब नय जो कुछ कहते हैं उसकी उपेक्षा भी निश्चय कर सकता है अतः वह प्रमाण नहीं है।
मूलम्:- तथा ज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः। क्रियामात्रप्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानयाः।
अर्थः- इसी प्रकार ज्ञान की ही प्रधानता को स्वीकार करने वाले नय ज्ञान नय कहे जाते हैं । जो केवल क्रिया को प्रधान मानते हैं वे क्रिया नय कहे जाते हैं।
मूलम् :- तत्र सत्रादयश्चत्वारो नयाश्चारित्रलक्षणायाः क्रियाया एव प्राधान्यमभ्युपगच्छ न्ति, तस्या एव मोक्षं प्रत्यव्यवहितकारणत्वात् ।
अर्थः- इसमें ऋजुसूत्र आदि चार नय चारित्ररूप क्रिया को ही प्रधान मानते हैं कारण, चारित्र रूप क्रिया ही मोक्ष का व्यवधान से रहित कारण है।
विवेचनाः- जिस कारण के अनन्तर कार्य की उत्पत्ति हो उसको कार्य का कारण मानना चाहिए। जो कारण परम्परा सम्बन्ध से