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________________ आत्मद्रव्य भी अवश्य है । मुख्य रूपसे वर्तमान कालके विषय में ध्यान देने के कारण ऋजुसूत्र तीन कालों में अनुगत रूपसे रहनेवाले आत्माको गौण समझता है और इस कारण उसकी उपेक्षा करता है। मूलम्:- कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः। कालकारकलिंगसङ्ख्यापुरुषोपसर्गाः कालादयः। ___अर्थः- काल आदिके भेदसे शब्द के अर्थ में भेदको स्वीकार करनेवाला शब्द नय है । काल, कारक, लिंग, सङ्ख्या पुरुष, और उपसर्ग कालादि हैं। मूलम् :- तत्र बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यत्रातीतादिकाल भेदेन सुमेरोéदप्रतिपत्तिः, करोति क्रियते कुम्भ इत्यादौ कारकभेदेन, तटस्तटी तट मित्यादौ लिङ्गभेदेन, दाराः कलत्रमित्यादौ संख्याभेदेन, यास्य सि त्वम्, यास्यति भवानित्यादौ पुरुषभेदेन, सन्तिष्ठते अवतिष्ठते इत्यादावुपसर्मभेदेन । अर्थः- सुमेरु था, है और होगा। यहां पर अतीत आदि कालके भेदसे सुमेरु के भेद का ज्ञान होता है। कुम्भार घट को बनाता है, कुंभारके द्वारा घट बनाया जाता है, यहां कारक के भेद से; तटः तटी तटम् इत्यादि स्थल में लिंग के भेद से; दाराः कलत्रम् इत्यादि में संख्या के भेद से; तुम जाओगे आप जायेगें इत्यादि में पुरुष के भेद से; संतिष्ठते अवतिष्ठते इत्यादि में उपसर्ग के भेद से; अर्थ में भेद का ज्ञान होता है। विवेचनाः- जब किसी वस्तुका अतीत कालके साथ सम्बन्ध प्रकाशित होता है तब अर्थका ज्ञान जिस रूप में होता है उसकी अपेक्षा वर्तमान काल में होनेवाले ज्ञानका रूप भिन्न होता है। ज्ञानके स्वरुप में भेद होनेसे अर्थका भी भेद आवश्यक है। ज्ञान भेदके कारण
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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