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विलक्षण स्वरूप से होता है। जहां कोई तव प्रमाण से सिद्ध हो वहां पर परस्पर विरोध के होने पर भी तीसरा प्रकार युक्त होता है । नैयायिक भी ज्ञान के दो भेद मानते हैं, प्रमा और अप्रमा। इन दोनों में परस्पर विरोध है तो भी वे निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमा और अमा से भिन्न मानते हैं। नय भी इसी प्रकार प्रमाण और अप्रमाण से भिन्न हैं
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मूलम् :- ते च द्विधा द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक मेदात् । तंत्र प्राधान्येन द्रव्यमात्र ग्राही द्रव्यार्थिकः । प्राधान्येन पयायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः ।
अर्थः- वे नय दो प्रकार के हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । उनमें प्रधान रूप से केवल द्रव्य का ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक है । प्रधान रूप से केवल पर्याय का ग्रहण करने वाला पर्यायार्थिक है ।
विवेचनाः- जो नय प्रधान रूप से द्रव्य का प्रतिपादन करता है वह द्रव्याथिक है । जो पर्याय को प्रधान रूप से प्रतिपादित करता है वह पर्यायार्थिक है। इन दोनों को द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक भी कहते हैं । प्रत्येक अर्थ द्रव्यरूप और पर्यायरूप है । द्रव्य पर्याय
बिना और पर्याय द्रव्य के बिना नहीं रहता । पर्यायों के उत्पन्न और विनष्ट होने पर भी जो स्थिर रहता है, वह द्रव्य हैं । जो स्थिर नहीं रहते, किसी काल में प्रतीत होते हैं और किसी काल में नहीं प्रतीत होते वे पर्याय हैं । सुवर्ण का कभी कुण्डल रूप में और कभी कंकण रूप में परिणाम होता है। जब कुण्डल रूप में परिणाम दिखाई देता है तब कंकण का आकार नहीं दिखाई देता, परन्तु कुण्डल और कंकण दोनों पर्यायों की दशा में सुवर्ण दिखाई देता रहता है । सब दशाओं में दिखाई देना सुवर्ण द्रव्य को स्थिर - सिद्ध करता है । पर्याय सदा नहीं दिखाई देते इसलिए