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________________ वे स्थिर नहीं है। स्थिर सुवर्ण द्रव्य है। देश और काल के क्रम से उसके पर्याय प्रकट होते हैं । पर्याय द्रव्य में सर्वथा असत् नहीं होते। पर्यायों का द्रव्य के साथ अभेद और भेद दोनों हैं । द्रव्यपर्यायरूप वस्तु में जब प्रधान रूप से द्रव्य को लेकर प्रतिपादन किया जाता है तब द्रव्यार्थिक नय होता है और जब प्रधान रूप से पर्यायों का प्रतिपादन होता है तब पर्यायार्थिक नय होता है। ध्यान में रखना चाहिए - वस्तु में द्रव्य और पर्याय समान रूप से रहते हैं। प्रधान और गौण रूप से नहीं। परन्तु जब अपेक्षा से एक का प्रधान भाव से और दूसरे का गौणभाव से प्रतिपादन होता है तब द्रव्यार्थिक अथवा पर्यायार्थिक नय उपस्थित होता है। इस वस्तु को तत्त्वार्थ सूत्र में इस प्रकार कहा है – “ अर्पितानर्पित सिद्धेः” [तत्त्वार्थ. अ. ५ सू. ३१]। अर्पित का अर्थ है अर्पण, अनर्पित का अर्थ है अनर्पण। ये दोनों क्रम से कहने की इच्छा और अनिच्छा को कहते हैं। धर्मी में अनेक धर्म हैं। कभी प्रयोजन से किसी धर्म की मुख्य रूप से विवक्षा की जाती है अन्य धर्मों को होने पर भी नहीं कहा जाता। जिन धर्मों का प्रतिपादन होता है उतने ही धर्म धर्मी में नहीं होते। वस्तु के द्रव्य रूप और पर्याय रूप होने पर भी प्रधान और गौण रूप से कहने की इच्छा के कारण वस्तु कभी सत् और कभी असत् प्रतीत होती है। कभी नित्य और कभी अनित्य प्रतीत होती है, जब अनुगामी नित्य स्वरूप के कहने की इच्छा होती है तब द्रव्य प्रधान रूप से प्रतीत होता है। जब उत्पत्ति और विनाश के कहने की इच्छा होती है तब पर्याय प्रधान रूप से प्रतीत होते हैं। स्वयं उपाध्यायजी नय रहस्य' में इस तत्त्व को कहते हैं - सन्निकर्ष-विप्रकर्षादिवशाद् यथा क्षयोपशमं द्रव्य-पर्यायप्रधानभावेनाप्रधानगुणभूतेऽपि वस्तुनि सत्त्व -घटस्वादिप्रतिपत्तेः, तदिदमुक्तन् - " अर्पितानर्पितसिद्धेः "। [तत्त्वार्थ. अ.५, सू. ३१] इति.
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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