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________________ ४ आदि का प्रकाशन करनेवाले प्रत्यक्ष अनुमान आदि जिस प्रकार प्रमाण हैं इस प्रकार वस्तु के सत्त्व आदि धर्मरूप अंश का प्रकाशन करनेवाले नय भी प्रमाण होने चाहिए । इस आशंका को दूर करने के लिए कहते हैं, नय ज्ञान रूप होने पर भी प्रमाण और अप्रमाण से भिन्न है। प्रमाण अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रकाशन करते हैं परन्तु नय वस्तु के एक देश का प्रकाशन करते हैं इसलिए प्रमाण नहीं हैं । अप्रमाण ज्ञान अर्थ को मिथ्या रूप में प्रकाशित करता है । मरुस्थल में जल का ज्ञान जल रहित स्थान को जल सहित रूप में प्रकाशित करता है । मिथ्या रूप में प्रकाशित करने के कारण जल ज्ञान अप्रमाण है । नयात्मक ज्ञान एक देश को मिथ्या रूप में प्रकाशित नहीं करता, इसलिए अप्रमाण नहीं है । समुद्र का बिन्दु-न समुद्र है न असमुद्र है किन्तु समुद्र का एक देश है, इस प्रकार नय भी न प्रमाण है न अप्रमाण है किन्तु प्रमाण का एक देश है । अनन्त धर्मात्मक वृक्ष आदि अर्थ वस्तु रूप है । उनके सत्त्व आदि धर्म वस्तु रूप नहीं हैं । मरु में जल के समान अवस्तु भी नहीं हैं किन्तु वस्तु के एक देश हैं । इसी प्रकार वस्तु के एक देश सत्त्व आदि का ग्रहण करनेवाले न प्रमाण हैं न अप्रमाण हैं किन्तु प्रमाण के एक देश हैं। इस रीति से भिन्न होने के कारण नयों का प्रमाणों से भिन्न रूप में और सत्य ज्ञान के साधन रूप में उल्लेख हुआ है । यदि नय प्रमाण हों तो प्रमाणों से भिन्न रूप में प्रतिपादन नहीं हो सकता । यदि नय अप्रमाण हों तो सत्य ज्ञान के साजन रूप में उल्लेख नहीं हो सकता । जहां दो धर्मों का परस्पर विरोध होता है वहां तीसरा प्रकार नहीं होता इस नियम के अनुसार नय रूप ज्ञान में शंका हो सकती है । नय ज्ञान है, ज्ञान दो प्रकार का है - प्रमाण और अप्रमाण । प्रमाण और अप्रमाण दोनों परस्पर विरोबी हैं, इनमें तीसरा भेद नहीं हो सकता इसलिए नय को प्रमाण रूप अथवा अप्रमाण रूप होना चाहिये यह शंका हो सकती है। इसका उत्तर नयात्मक वस्तु के
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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