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________________ ३२४ प्रतिषेध्याविरुद्ध स्वभावानुपलग्धि (२) प्रतिषेध्याविरुद्ध व्यापकानुपलग्धि (३) प्रतिषेध्याविरुद्धकार्यानुपलग्धि (४) प्रतिषेध्याविरुद्ध कारणानुपलब्धि (५) प्रतिषेध्याविरुद्ध पूर्वपरानुपलब्धि (६) प्रतिषेध्याविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धि (७) प्रतिपेध्याविरुद्धसहचरानुपलब्धि । ___ मूलम्:-यथा नास्त्यत्र भूतले कुम्भः, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तत्स्वभावस्यानुपलम्भात् । नास्त्यत्र पनसः, पादपानुपलब्धेः। नास्त्यत्रा. प्रतिहत शक्तिकं बीजम् , अङकुरानवलोकनात् । न सन्त्यस्य प्रशमप्रभृतयो भावा:, तत्त्वार्थभडानाभावात् । नोद्गमिष्यति मुहून्तेि स्वातिः, चित्रोदयादर्शनात् । नोदगमत. पूर्षभद्रपदा मुहूर्तात्पूर्वम् , उत्तरभद्रपदोद्गमाभवगमात् । नास्त्यस्य सम्यग्ज्ञानम्, सम्यग्दर्शमानुपलब्धेरिति । अर्थः-इनके उदाहरण (१) इस भूतल में घट नहीं है। उपलब्धि के कारणों को प्राप्त करके भी और उपलब्धि के योग्य स्वभाववाला होने पर भी उसकी उपलब्धि न होनेसे । (२) यहां पनस नहीं है, वृक्ष की अनुपलब्धि होने से । (३) यहां अप्रतिहत शक्तिवाला वीज नहीं है, अंकुर का अदर्शन होनेसे । (४) इस मनुष्य को प्रशम आदि भाव नहीं हैं, तत्त्व अर्थों
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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