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________________ ३२३ दिखाई नहीं देता । अत द्रव्यरूप से नित्य और पर्यायरूप से अनित्य है। इस कारण भी प्रत्येक अर्थ अनेकान्त रूप है। जो लोग केवल ज्ञान को सत्य स्वीकार करते हैं और बाह्य अर्थ को मिथ्या मानते हैं. उनका मत भी युक्त नहीं है। जिस प्रकार ज्ञान प्रतीत होता है और वह सत्य है-इस प्रकार अथ भी प्रतीत होता है और उसका बाध नहीं होता, अतः ज्ञान के समान अर्थ भी सत्य है। एकान्तरूप से समस्त अर्थ मिथ्या नहीं हैं। किसी भी अर्थ में एकान्त स्व. भाव प्रतीत नहीं होता, अतः अर्थ अनेकान्तात्मक है । चतुर्थ उदाहरण में छाया साध्य है। उसके विरुद्ध ताप है उसका व्यापक उष्ण स्पर्श है, उसकी अनुपलब्धि हैअत: विरुद्ध व्यापकानुपलब्धि है । पंचम उदाहरण में मिथ्या ज्ञान साध्य है, उसके विरुद्ध सम्यग ज्ञान है और उसका सहचर सम्यग् दर्शन है, उसको अनुपलब्धि है, अतः विरुद्ध सहचरानुपलब्धि है। मलम्:-द्वितीयोऽविरुहानुपलब्धिनामा प्रतिषेध्याविरुडस्वभावव्यापककार्यकारणपूर्व चरोत्तरसहचरानुपलब्धिभेद त् सप्तधा। ___ अर्थः-दूसरा अविरुद्धानुपलब्धि नाम वाला है। निषेध्य से अविरुद्ध जो स्वभाव-व्यापक-कार्य कारण पूर्वचर-उत्तरचर और सहचर हैं, उनकी अनुपलब्धि के भेद से यह सात प्रकार का है। विवेचना:-यह हेतु स्वयं निषेधरूप है और निषेध का साधक है । इसके सात भेदों के नाम इस प्रकार हैं। (१)
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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