SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ अर्थः-उदाहरण-इस मनुष्य में रोग की अधिकता है-रोग रहित मनुष्य के व्यापारों की अनुपलब्धि के होने से | इस मनुष्य में कष्ट है, प्रिय अर्थ के साथ संयोग न होने से । वस्तु अनेकान्तात्मक है-एकान्तस्वभाव के अनुपलब्ध होने से । यहां छाया है-उष्णस्पर्श की अनुपलब्धि के होने से । इस मनुष्य को मिथ्या ज्ञान है, सम्यग्दर्शन की अनुपलब्धि के होने से । विवेचनाः- प्रथम उदाहरण में अधिक रोग साध्य है । उसके विरुद्ध आरोग्य है उसका कार्य रोग रहित मनुष्य की चेष्टाओं का समूह है, उसको अनुपलब्धि है-इस कारण विरुद्ध-कार्यानुपलब्धि है। दूसरे उदाहरण में-साध्य कट है. उसके विरुद्ध सुख है, उसका कारण प्रिय वस्तु का संयोग है, उसको अनुपलब्धि है-अतः विरुद्ध कारणानुपलब्धि है। तीसरे उदाहरण में अनेकान्त स्वभाव साध्य है। उसके विरुद्ध एकान्त स्वभाव है, उसकी अनुपलब्धि है, अतः विरुद्ध स्वभावानुपलब्धि है । अर्थ स्व-रूप से सत् और पररूप से असत् दिखाई देते हैं। कोई भी अर्थ प्रत्यक्ष के द्वारा केवल भावात्मक अथवा अभावात्मक प्रतीत नहीं होता, अतः प्रत्येक अर्थ भावात्मक और अभावात्मक है इसलिये अनेकान्तात्मक है । इसी रीति से कोइ भी अर्थ सर्वथा नित्य नहीं प्रतीत होता । पर्यायरूप में उसका परिणाम प्रत्यक्ष है अनेक परिणाम होने पर भी द्रव्यरूप से उसका विनाश
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy