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________________ ३२१ प्रथम भेद विधि साधक है और उसी का दूसरा भेद विरुद्धो. पलब्धि मानवाला प्रतिषेध का साधक है । इसी प्रकार प्रतिषेधरूप हेतु का भी प्रथम भेद विरुद्धानुपलब्धि नाम वाला है और विधिसाधक है । उसोका अबिरुद्धानुपलब्धि नामक दूसरा भेव प्रतिषेध साधक है। मूलम-आयो विरुडानुपलब्धिनामा विधे. यविरुद्धकार्यकारणस्वभावव्यापकसहचरानुपलम्भभेदात्पञ्चधा। अर्थः-विरुद्धानुपलब्धि नाम वाला प्रथम हेतु विधेय के विरुद्ध कार्य-कारण-स्वभाव-व्यापक-और सहचर की अनुपलब्धि के भेद से पांच प्रकार का है। विवेचना:--विधेय का अर्थ है साध्य । साध्य से जो . विरुद्ध हैं उनकी अनुपलग्धि होने से इसके पांच मेव हैं (१) विधेय विरुद्ध कार्यानुपसम्षि (२) विधेय विन्य कारणानुपलग्धि (३) विधेय विरुद्धस्वाभावानुपलग्धि (४) विधेयविरुद्ध व्यापकानुपलन्धि और (५) विधेय विरुद्ध-सहचरा. नुपलब्धि। मूलम्-यथा अस्त्यत्र रोगातिशयः, नीरोगव्यापारानुपलब्धेः विद्यतेऽत्र कष्टम् , इष्ठसंयोगाभावात् । वस्तुजातमनेकान्तात्मकम् , एकान्तस्वभावानुपलम्भात् । अस्त्यत्र छाया, औष्ण्यानुपलब्धेः । अस्त्यस्य मिथ्याज्ञानम् , सम्यग्दर्शनानुपलब्धेरिति ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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