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है। स्मरण का प्रामाण्य अनुभव पर आश्रित है. अतः स्मरण प्रमाण नहीं, इस प्रकार का आक्षेप युक्त नहीं है।
यद्यपि अनुभव पर आश्रित होकर स्मरण अर्थ को प्रकाशित करता है, तो भी मिथ्यारूप में नहीं प्रकट करता। मिथ्या रूप में अर्थ का प्रकाशन अप्रामाण्य का मूल कारण है। इसके न होने पर ज्ञान में अप्रामाण्य नहीं हो सकता । अनुभव जब सर्वथा स्वतंत्र होकर अर्थ को मिथ्या रूप में प्रकाशित करता है, तब वह अप्रमाण कहा जाता है। यदि अन्य की अपेक्षा का अभाव प्रामाण्य का कारण हो तो मिथ्या अनुभव भी प्रमाण होना चाहिए। स्वयं दुबल होनेसे अन्य पुरुष की अथवा दंड की सहायता से यदि कोई खडा हो तो, वह खडा हुआ ही समझा जाता है। वह बैठा हुआ नहीं माना जाता । अन्यको अपेक्षा खडे होनेक स्वरूप को नहीं दूर करती। अनुभव की अपेक्षा भी स्मरण के प्रामाण्य को दूर नहीं कर सकती । व्याप्तिज्ञान से अनुमिति उत्पन्न होती है। यदि व्याप्तिज्ञान प्रमारूप हो तो अनुमिति प्रमात्मक होती है। व्याप्ति ज्ञान की अपेक्षा करने से अनुमिति अप्रमाण नहीं हो जाती। अनुमिति के समान स्मरण भी अनुभव की अपेक्षा होनेसे अप्रमाण नहीं है।
मूलम:-अनुमितेरुत्पत्तौ परापेक्षा, विषयपरिच्छेदे तु स्वातन्त्र्य मिति चेत् , न; स्मृतेरप्युस्पत्तावेवानुभवसव्यपेक्षत्वात्, स्वविषयपरिच्छेदे तु स्वातन्त्र्यात् ।
अर्थ:-अनुमिति केवल . उत्पत्ति में पर की अपेक्षा करती है परन्तु विषय के प्रकाशन में स्वतन्त्र है । यदि