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________________ ११ नारक-तियंच-मनुष्य और देवों में श्रुतज्ञान सदा रहता है उसका विच्छेद किसी काल में नहीं होता, इसलिये द्रव्य विषय में अनेक जीवों का आश्रय लेकर अनादि है। पाँच महाविदेहों में नोअवसपिणी और नोउत्सपिणी रूप काल है, अत: इस क्षेत्र और काल को अपेक्षा अनादि है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी से रहित महाविदेहों में सामान्य रूप में द्वादशांगवत का विच्छेद किसी काल में नहीं होता। उनमें तीर्थकर और गणधर सदा रहते हैं । इस रीति से क्षयोपशम का आश्रय लेकर श्रुत अनादि है। __ मलम्-एव सपर्यवसितापर्यवसितभेदा. पविभाव्यो। अर्थ-(8-१०) जिस द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा से श्रुत सादि है उसी अपेक्षा से वह सपर्यवसित अर्थात् अन्त सहित है और जिस अपेक्षा से अनादि है उसी अपेक्षा से अपर्यवसित अर्थात् अनंत है। विवेचना-भरत और अरावत क्षेत्रों में चरम तीर्थकर के शासन में जब तीर्थ का अन्त होता है तब श्रुत का विच्छेद अवश्य होता है। काल की अपेक्षा से उत्सर्पिणी के चौथे आरे के आदि में और अवसपिणो के पांचवे आरे के अन्त में अवश्य विच्छेद होता है। मूलम्--गमिकं सदृशपाठं प्रायो दृष्टिवादगतम् । अगमिकमसदृशपाठं प्रायः कालिकश्रुतगतम् ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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