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________________ लक्षणम, भावतश्च मामान्यतः क्षयोपशम. मिति । ___अर्थ-: (७) द्रव्य से एक पुरुष का आश्रय लेकर, क्षेत्र से भरत और ऐरावत का आश्रय लेकर, काल से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का आश्रय लेकर, भाव से उस उस ज्ञापक गुरु के प्रयत्न आदिका आश्रय लेकर श्रुत आदिसहित है। (८) द्रव्य से अनेक पुरुषों का आश्रय लेकर, क्षेत्र से महाविदेह का आश्रय लेकर, काल से नोउत्सर्पिणी और नोअवसर्पिणी का आश्रय लेकर, और भाव से सामान्यरूप में क्षयोपशम भाव का आश्रय लेकर श्रुत अनादि है। ___विवेचना-इस भव में किसी जीव को यदि पहले सम्यकत का ज्ञान नहीं हुआ हो और अभी उत्पन्न हुआ हो तो उसकी अपेक्षा से सम्यकश्रत सादि होता है । श्रुत. ज्ञानी जीव जब भवान्तर में जाता है तब उसके श्रुत का नाश हो जाता है। रोग और प्रमाद के कारण इस भव में भी श्रुत का नाश हो जाता है । इस प्रकार पुरुष के आश्रय से द्रव्य की अपेक्षा सम्यकश्रुत आदि और अन्त से युक्त है । भरत और ऐरावत क्षेत्रों में प्रथम तीर्थंकर के काल में श्रुत का उद्भव होता है इसलिये वह क्षेत्र की अपेक्षा से सादि है। उत्सर्पिणी और अवसपिणीकाल में उसका उद्भव होता है इसलिये काल की अपेक्षा से सादि है । गुरु के उपदेश से उत्पन्न होता है इसलिये भाव को अपेक्षा से सादि है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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