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________________ ११४ श्रुत दो प्रकार का है । आचारांग आदि बारह अङ्गप्रविष्ट हैं । इनसे भिन्न आवश्यक आदि अनंगप्रविष्ट हैं। (६) लौकिक श्रुत मिथ्याश्रुत है । जिस शास्त्र का रचयिता आप्त नहीं है वह शास्त्र मिथ्याश्रुत है । सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत के स्वामियों का विचार किया जाय तो भजना विकल्प है। वह इस रीतिसेसम्यग्दृष्टि जिस मिथ्याश्रुत को ग्रहण करता है वह मिथ्या श्रुत भी सम्यक्श्रुत है । सम्यग्दृष्टि मनुष्य भिन्न भिन्न स्थानों में विषय के विभाग से मिथ्याश्रुत की योजना मिथ्यावादी आदि रूप से करता है--इसलिये मिथ्याश्रुत भी सम्यक्श्रुत हो जाता है । इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि मनुष्य जिस सम्यक्श्रुत को ग्रहण करता है उसकी योजना यथार्थ रूप से नहीं करता, इसलिये वह सम्यक्श्रुत भी मिथ्याश्रुत हो जाता है। मूलम्-सादि द्रव्यत एकं पुरुषमाश्रित्य, क्षेत्रतश्च भरतैरावते । कालत उत्सर्पिण्यवसपिण्यो; भावतश्च तत्तज्ज्ञापकप्रयत्नादिकम् । अनादि द्रव्यतो नानापुरुषानाश्रित्य, क्षेत्रतो महाविदेहान् , कालतो नोउत्सर्पिण्यवसर्पिणी
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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